जीवन सपना था

आँखें सपनों में रहीं
और सपने झाँकते रहे आँखों की कोर से
यूँ रची हमने अपनी दुनिया
जैसे बचपन की याद की गईं कविताएँ
हमारा दुहराया अंतिम गीत हों
जैसे भूल गई स्मृतियों में अटका हो जीवन
और अपनी ही परिधि में घूमता रहे कोई
जैसे माँ की सुनायी गई लोरी में आयी हो
सबसे गहरी नींद
जैसे छोड़ आये चौबारों के साथ
हम खो आये हों अपने असली सपने
जैसे पाए गए सपने
भरम हो जीने के
पाने की ललक के बीच
न जाने कितनी रात आते रहे सपने भागने के
न जाने कितनी करवटों ने छोड़े निशान हमारे हाथों पर
किसी-किसी रात
आँखों ने की प्रार्थना सपनों से
कि कोई सपना न आए रात
और वे सो सकें लेकिन
जीवन सपना था कैसे न आता।

प्रेम का मौन

तुम्हारे मौन और मेरे मौन के बीच
नदी का स्पन्दन है
एक चट्टान की टूटन भी

तुम्हारे मौन और मेरे मौन के बीच
बारिशें हैं टपटप बहती हुईं

हमारा मौन
रुधिर में निःश्वास धड़कता एक सितारा है
जिसे हवाएँ पढ़ सकती हैं
गुपचुप जिसे कोई देखता है
तो बच्चों की शरारत कह मुस्कुरा देता है

तुम्हारे मौन और मेरे मौन के बीच
एक भरा-पूरा शहर है चुप्पी का।

आशिका शिवांगी सिंह की कविताएँ

किताब सुझाव:

पूर्णिमा वत्स
फ्रीलांस पत्रकार ,अनुवादक ,आकाशवाणी और मैकमिलन प्रकाशन के साथ कुछ समय तक जुड़ी रही | लटक ,सहचर ई पत्रिका ,अभिव्यक्ति और अनुभूति , मुख्यांश ,प्रतिलिपी , स्टोरी मिरर ,अनबाउंड स्क्रिप्ट में रचनाएं प्रकाशित | प्रकाशित पुस्तक - इकनॉमिक्स वाला लव में चंद कहानियाँ प्रकाशित |