कविता संग्रह ‘आ बैठ बात करां’ से
चयन व अनुवाद: राजेन्द्र देथा

कितने भोले हैं वे

मैं उनके सामने औरों की तरह
हाथ बाँधकर नहीं जाता
न ही दाँत निकाल
पूँछ हिलाता
उनके समक्ष

उनके अश्लील चुटकलों पर
होंठों को लेकर एक विशेष
भाव भी नहीं लाता मैं!

और न ही उनकी
कच्ची-पक्की बातों पर
हाँ-हूँकर करता हूँ

और देखिए!
कितने भोले हैं वे
मुझे संकोची समझ बैठे हैं।

आदमी

मुर्ग़ा
काँच खाता है
और मुर्ग़े को आदमी
फिर भी आदमी अचम्भा करता है
अरे
मुर्ग़ा काँच खा रहा!

दख़ल

कुत्ते भौंकते हैं
आदमी उन्हें ललकारता है

आदमी भौंकता है
कुत्ते कुछ नहीं कहते
सिवाय सामने देखने के!

स्वीपर

गन्दगी से घिन्न है
स्वीपर को क्योंकि—
वह आदमी है
इसलिए सफ़ाई करता है।

ये पता नहीं क्या हैं
गन्दगी ही गन्दगी करते हैं

क्या कहना चाहता है?

तुम्हारी सजी-सँवरी
रूपवती और चमत्कारी भाषा के
शब्दों का अर्थ नहीं आता

अंगोच्छन कर बता कवि
क्या कहना चाहता है?

मण्डली

मैं उनकी मण्डली में बोलता हूँ
वे मुझे अनदेखा करते हैं, मेरी
बात को हवा में उड़ाते हैं

गर मैं उनकी मण्डली में
साध लूँ मौन
तब वे मुझे संकोची बताने लगते हैं

‘तुम स्याणे हो’

वे चाहते क्या हैं?

***

'जो स्त्री रो रही है, क्या आप उसके बारे में जानते हैं?'

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