‘पदचाप के साथ’ कविता संग्रह से
बल्ब
इतनी बड़ी दुनिया है कि
एक कोने में बल्ब जलता है
दूसरा कोना अन्धेरे में डूब जाता है,
एक हाथ अन्धेरे में हिलता है
दूसरा चमकता है रोशनी में,
कभी भी पूरी दुनिया
एक साथ
उजाले का मुँह नहीं देख पाती
एक तरफ़
रोने की आवाज़ गूँजती है
दूसरी तरफ़
क़हक़हे लगते हैं
पेट-भर भोजन के बाद
जिधर बल्ब है, उधर ही सब-कुछ है
इतना साहस भी कि
अपने हिस्से का अन्धेरा
दूसरी तरफ़ धकेल दिया जाता है
एक कोने में बल्ब जलता है तो
दूसरा कोना
सुलगता है उजाले के लिए दिन-रात।
नमक
था तो चुटकी भर ज़्यादा
लेकिन पूरे स्वाद पर उसी का असर है
सारी मेहनत पर पानी फिर गया
अब तो जीभ भी इंकार कर रही है
उसे नहीं चाहिए ऐसा स्वाद जो
उसी को गलाने की कोशिश करे
ग़लती नमक की भी नहीं है
उसने तो सिर्फ़ यही जताया है कि
चुटकी-भर नमक भी क्या कर सकता है!
खरोंच
पत्थर हो या टहनी या मन हो या देह
सब कोमल है खरोंच के लिए
कभी ख़ून बहता है
कभी सिसकी भी नहीं सुनायी पड़ती
खरोंच का एहसास कभी ख़त्म नहीं होता
चाहे बीते हों कितने बरस
नहीं होता फीका कभी उसका रंग
दुःस्वप्न की तरह बार-बार लौटती है उसकी याद
बचाती है हर नयी खरोंच से
आँखें खुली
दो क़दम आगे का चुभना भी देख लेती हैं।
नक़्शा
इसी से हैं सीमाएँ
टूटती भी इसी के कारण हैं
बच्चे सादे काग़ज़ पर बनाकर
अभ्यास करते हैं इसका,
तानाशाह
सिरहाने रखकर सो जाते हैं
इसी से चुने जाते हैं ठिकाने
इसी से तलाशी जाती है
विस्फोट की जगह
छोटे-से नक़्शे में
दुनिया सिमटकर रह जाती है
इतनी कि
हर कोई इसे
मुट्ठी में क़ैद करना चाहता है।
चित्र
तुम पहचानती हो रंग
रंग की ज़रूरत जानती हो तुम
जब भी तुम्हारी उँगलियाँ
डूबती हैं रंगों में
सब-कुछ खिल जाता है
फिर
कभी नहीं मुरझाता
यहाँ तो बाँस के पत्तों का रंग
कब से हरा है
घनी है दूब
चिड़िया के पंख में
थकान का कोई रंग नहीं है
जब तुम सम्भालती हो रंग
उसे बिखेर देती हो इस तरह कि
जीवन का सूर्यास्त नहीं होता
साँस दिखती तो नहीं
लेकिन चलती रहती है।