विदा की आँच पर झोंक दी जातीं लड़कियाँ

विदा की आँच पर झोंक दी जाती हैं अक्सर
अपरिपक्वता की रेखा पर कूदती-फानती लड़कियाँ
दुगुने-तिगुने उम्र की भट्ठी में।

रिश्ते-नातों को गिनने-समझने में सीखती हैं
परखकर सहेजना, अनुभवी ज्ञान से
और बिठा लेती हैं उन्हें बारीकियों से साड़ी की
प्लेट की तह में।

एक आधी रोटी पोयी ही थी
कि झटपट दौड़ पड़ती हैं छज्जे की ओर
बचपन की तरह देखने चाँद और ढूँढने टूटते तारे,
लेकिन हर रात अब आसमान काला चादर
ताने ही मिलता है
न चाँद दिखता है, न ही कोई टूटते तारे
ये स्वयं पराये आँगन में गिरी होती हैं बनकर
टूटा हुआ सितारा
आजीवन एक अकुलाहट भरा रुदन गले में
अटककर रह जाता है
बस रसोई में खप जाती हैं, सबकी जिजीविषाओं
को थाली में सजा-सजाकर परोसती हुईं।

सामने के पड़ोसी किशोर लड़के
झाँककर ऐसे देखते हैं बनौनी-सी शक़्ल से
जैसे देखा हो पहली बार चढ़े सठईसा पर छतरीनार।

मूल्यों, संस्कृतियों, रूढ़िवादी विचारों व संस्कारों
को पाँच गज़ की साड़ी में लपेटे नाचती रह
जाती हैं सभ्यताओं के आँगन में दिन-रात।

प्रेम और मैं

मैं मन के आँगन में
प्रतिदिन मीठे स्वप्नों के दाने छींटती हूँ
प्रेम फड़फड़ाकर आता है व चुगकर
मेरे लिए आधा तिहा छोड़ जाता है।

मैं दिन में तारों की
पायल बना पैरों में लटकाए फिरती हूँ
प्रेम चाँद-सा रातों में आकर आँखों
में चमक जाता है।

मैं दुनिया-भर की बातों को हथेली
पर नचाती रहती हूँ,
प्रेम चुपके से आकर एक यादों
की पुड़िया मेरे अधरों पर घोल जाता है।

मैं जब वेदनाओं के भवसागर में
डूबती जाती हूँ
प्रेम मेरी नाभि में जीवन का एक
नया अर्थ व आयाम लिए उग आता है।

मैं छुपती-छुपाती सबसे मौन में
जब-जब तड़पती हूँ,
प्रेम अपनी ख़ाली झोली में ब्रह्मांड
समेटे, मेरे बिस्तर के सिरहाने पर एक
कविता बैठा जाता है।

घोंसले-भर जीवन

कहीं भी आना और लौट जाना
तय होता है अपने एक निश्चित समय पर।
‘लौटना’ एक लोटे पानी भर है
जो कहीं भी जाकर, तय जगह लौटने पर
छलकते-छलकते अधूरा ही बचता है।

मुझे घास-फूस, खर-पतवार
पौधा, पेड़, फूल, फल या कहूँ तो जंगल
ही अत्यधिक पसंद हैं
किसी से दो-चार जंगली बातें भी चिड़ियों की
पाख-सी मुलायम ही प्रतीत होती हैं
देखो! कैसी जंगली है ये लड़की?
आह! कितना सुकून भरा सुखद सम्बोधन है यह।

मुझे लगता है मैं जब आयी तो ऐसे आयी
जैसे घोंसले में टपका एक टिकोरे-भर का अंडा
और माँ ने पनपने को ढाँप दिया हो
गूँथे हुए अनगिन प्रेम तिनकों से
और तबसे ही रह गया मेरा जीवन बस
घोंसले-भर का।

जैसे कूपमण्डूक होना!
संकीर्ण विचारधारा का होना
या संकुचित हृदय का होना लगता है
वैसे ही मैं ख़ुद के लम्बे पाँव को समेटती ही रही
और मेरा संसार जंगल समान बस एक पेड़
पर घोंसले-भर ही रहा।

घूम-फिरकर घोंसले में ही खपती-खपाती उसके
आँगन में फड़फड़ाना सीखी,
उड़ना, दबोचे जाने के भय से तलवों में दबा रहा,
कदाचित अंत समय में यहाँ से सदा के लिए
तय जगह पर लौट जाना,
प्रकृति की सम्पूर्णता में छलककर पूर्ण हो जाना है।

छटकी आवाज़ों की गूँज

मानव-अस्थि की विषमताओं, नीरवता
व रूढ़िवादिता का भार ढोते-ढोते
अक्सर छितरा जाती है चार पायों वाली खटिया
संस्कृतियों के समक्ष ही नयी विचारधाराएँ पनपती हैं
कुछ आँखों को खटकती हैं
कुछ भावनाओं को रूढ़ कर देती हैं
रूढ़िवादिता कैसे ज़मीनी होना सिखाती है?
बताती है कि चार फलाँग मारने के बजाय
एक-एक फलाँग मारना सीखो।

बाबा ने हमेशा अम्मा को चार गज़ घूँघट काढ़ना
औरत की मर्यादा होना बताया,
अम्मा ने बचपन से ही लड़कियों को बूटी-फुलकारी
में ही इच्छाओं की लताएँ चादर पर काढ़ना व आशाओं
की ज्योति बीच-बीच में जलाना सिखाया।

पाँव की छनछनाती पैंजनी छनमना उठती है बजते-बजते
पूछती है लाल महावर से— सफ़ेद शांति द्वारा भेदे
जाने की करुण वेदनाओं का स्वर!
कभी बताया नहीं अम्मा ने कि जाता-चक्की में
पिसते वक़्त जो स्त्रियाँ छटक जाती हैं अपनी धुरी से
उनको क्यों बुहार दिया जाता है परिवेश से?
छटकी आवाज़ों की गूँज ही छलनी करती है अक्सर
रूढ़िवादिता की अस्थिमज्जा को!

एक आधी रोटी भर का जीवन

न ही दुर्गमता से व न ही सुगमता से
पूरी-पूरी रोटी पचा लेना सहज बात ही नहीं,
‘एक-आधी रोटी-भर का ही जीवन’
मैं कविताओं में एक छटाक भात से चिपकाती हूँ
मैंने इर्द-गिर्द छितरायी व्यंग्योक्तियों को बटोर लेना चाहा
लेकिन बस बैठे-बैठे ही ‘कमर तोड़ती’ रही हूँ मैं।

एक ही अर्थ के अलग-अलग समानार्थी शब्दों
से ख़ुद को बहलाती रहती हूँ
एक बूढ़ा गली में प्रतिदिन कुछ बड़बड़ाता हुआ
एक स्तम्भ को न जाने क्या कोसता
हुआ आता-जाता है!

मेरी कविताओं को उसकी भनक पड़ते ही
मुई भरभरा जाती हैं, जाकर स्तम्भ के चारों ओर…
एक कविता के चार कान होते हैं,
वो रहस्यों को छलनी कर देती हैं हवाओं में।

शरीर में एक अर्थहीन रीढ़, भला कितना और
कब-तक भार सहेगी किसी का?
मैं कविताओं से एक ऊँचा व दृढ़ स्तम्भ का
निर्माण करूँगी ताकि मेरे अविवेकी दिनों
का एकमात्र अर्थयुक्त रीढ़ बने यह।

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स्वाती पांडेय
भोले बाबा की नगरी काशी की रहनेवाली। जन्मतिथि : 25/05/1995 M.Sc (maths), B.Ed

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