यतीश कुमार की कविताओं को मैंने पढ़ा। अच्छी रचना से मुझे सार्वजनिकता मिलती है। मैं कुछ और सार्वजनिक हुआ, कुछ और बाहर हुआ, कुछ अन्य से मिला, उनके साथ हुआ और उनके साथ चला। —विनोद कुमार शुक्ल
यतीश की कविता का कुनबा काफ़ी बड़ा है, जिसमें आवाँ जितने पात्र भरे पड़े हैं। इनका वैविध्य उनकी संवेदना की परिधि को कहीं व्यापक बनाता है तो कहीं भरमाता है। इस विचलन को हुनर में बदल देने की सम्भावना और भरपूर क्षमता उनके कवित्व में मौजूद है, जिसका प्रमाण हैं इस संकलन की कविताएँ। —अष्टभुजा शुक्ल
यतीश कुमार का नया कविता संग्रह ‘अन्तस की खुरचन’ हाल ही में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है, प्रस्तुत हैं कुछ कविताएँ, साभार किंशुक गुप्ता एवं राजकमल प्रकाशन।
ओसारा
घर का ओसारा
पहले सड़क के चौराहे तक
टहल आता था
पूरे मोहल्ले की ठिठोली
उसकी जमा-पूँजी थी
ओसारे से गर कोई आवाज़ आती
तो चार कन्धे हर वक़्त तैयार मिलते
शाम हो या कि रात
वहाँ पूरा मेला समा जाता था
हर उम्र का पड़ाव था वह
कंचे की चहचहाहट से चिड़िया उड़ तक
ज़ीरो काटा, पोशम्पा के गीत
या ज़मीन पर स्तूप का गणित
पिट्ठू फोड़ हो या विष-अमृत की होड़
या फिर ताश और शतरंज में लगाए क़हक़हे
सब-के-सब वहाँ अचिन्तन विश्राम करते
पर आज वहाँ
हर वक़्त दोपहर का साया है
चौराहे तक पसरा हुआ ओसारा
चढ़ते सूरज में सिमट आया है
ढलती शाम की पेशानी
वहाँ अब टहल नहीं पाती
और न ही उगते सूरज की ताबानी के लिए
कोई जगह शेष है
ओसारा अब स्मृति में भी अवशेष है।
बनना चाहता हूँ
बनना चाहता हूँ
तुम्हारा चश्मा
बिना जिसके
दुनिया तुम्हें धुँधली दिखती है
हेयर क्लिप बनूँगा
सर्पीली लटें तुम्हारी
आँखों में नहीं चुभेंगी
बन जाऊँगा तुम्हारा दुपट्टा
जब चाहे सर ढक लो
या जब चाहे आसमान
बन जाऊँगा मिज़राब
रहूँगा उँगलियों में वैसे ही
न होने के एहसास-सा
संगीत बिखेरते हुए
समय की असमय लहरों के बीच
तुम्हारी मुस्कान वह अकाट्य शकुन है
जिसकी बस एक नज़र
सारे बेइरादे बुहार देती है।
माँ की सहेलियाँ
कंक्रीट के जंगल में
कई झुटपुटे एकान्त हैं
उन झरोखों से झाँकती हैं
झुर्रीदार आँखें
कबूतरों के अस्थायी घोंसलों में
कहीं गुम हो गई हैं
माँ की प्यारी सखियाँ
कभी-कभी खोजने लगती हैं
पापा के साथ आने वाली
दोस्तों के चेहरे में उनको
या कभी मेरे दोस्तों की माँओं में
खोजने लगती हैं पास-पड़ोस की
मुँहबोली चाची, मामी, काकी में
गुम हो गई अपनी सहेलियों को
जो थी नादानियों के दिनों की
उनकी सबसे अच्छी दोस्त
माँ टकटकी लगाए
झुटपुटों से राह तकती
झुर्रियाँ का दायरा बढ़ाती
अन्तहीन प्रतीक्षा में है
स्मृतियाँ ख़ुद को बस दोहराती हैं
याद आती हैं
बस, नहीं आती हैं तो माँ की सखियाँ।
मेरी बच्ची!
मेरी बच्ची!
जीवन पत्तियों की तरह है
आज हरी तो कल सूखी
बसन्त में खिलखिलाई
पतझड़ में बहुत याद आयी
इसीलिए
मेरी बच्ची!
लहलहाना ज़रूर
जब आँधियाँ चलें
तुम जड़ मत हो जाना
जड़ बन जाना
रहना ऋतुओं के असर से बेअसर
बसन्त और बरखा को अपने भीतर बचाए
दुनिया को जीवन्त और नम बनाने के लिए
मेरी बच्ची!
ख़ूब खेलना
खेलने के लिए खेलना
जीतने के लिए मत खेलना
पत्थर तो डूब जाते हैं
तुम तिनका बन तूफ़ानों में भी तैरना
बनना डूबते का सहारा
मेरी बच्ची!
चमकना तुम इतना
कि अँधेरे में भी कोई आँख
स्याह न रहने पाए
पसर जाना रौशनी की तरह
कि हाथों को थामने के लिए हाथ मिल जाए
जीवन पथ पर बहुतायत शून्य
शक्ल बदल-बदलकर मिलेंगे
तुम सीखना…
छिद्र शून्य से बचना
और विच्छेद शून्य को गले लगाना
मेरी बच्ची!
तुम प्रकृति हो
देती हो मुझे बार-बार जीवन
करती हो मेरा पुनर्नवा।
सविता सिंह के कविता-संग्रह 'खोई चीज़ों का शोक' से कविताएँ