‘कविता में बनारस’ संग्रह में उन कविताओं को इकट्ठा किया गया है, जो अलग-अलग भाषाओं के कवियों ने अपने-अपने समय के बनारस को देख और जीकर लिखीं। लगभग छह सौ साल का विराट समय-पट्ट और उस पर अंकित ये कविताएँ!

इस संग्रह के सम्पादक राजीव सिंह हैं और संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से ज्ञानेन्द्रपति द्वारा बनारस पर लिखी गईं कुछ कविताएँ—

चिता-संवाद

मणिकर्णिका पर जलती हुई एक चिता
दूरस्थ—दूसरे ध्रुवस्थ, लेकिन नदी की बाँक पर स्थित सम्मुख
हरिश्चंद्र घाट पर जलती चिता से
करती है एक गूढ़ संवाद
चिता की लपटों की घट-बढ़ से
लाल गेरुई और नील-हृदय पीले रंगों के हेल-मेल से
लहक-दहक धधक-भभक से
बहुविध प्रकाश-संकेतों से
कि मानो अनंत यात्रा पर निकले नाविकों के
मोर्स-सिग्नल हों वे
अनुभव-मर्म के आदान-प्रदान

कुहरिल अँधेरे में
बीच के तट-घाटों की बत्तियाँ—
बल्बों के गुच्छे, नियान-लाइटों के फानूस, वैपर-लैम्पों के समूह—
सभी-की-सभी घाट-तटवासी बत्तियाँ
कि जैसे छज्जों से झाँकतीं बच्चियाँ
उत्सुकता से सुनती हैं, साँस रोके
संध्या-भाषा में यह मूक सम्भाषण
समझ नहीं पातीं, लेकिन समझना चाहतीं जीवनाशय।

नगर की आँखों में बसी है असी

असी
वही—वाराणसी की वरुणा का विपरीत ध्रुव
वही असी जो नदी से नाला हुई है
जलपक्षियों ने त्याग दिया है जिसे
भूल गया है नगर जिसे एक नदी के रूप में
एक सीमेंट की नाली में बहती जाती है जो मौन, मुर्दार
एक नामशेष नदी
हिमालय तक पहुँची है उसकी हाय
इंद्र ने सुन ली है अबके उसकी
वज्रधर इंद्र वज्रबधिर नहीं हुआ अभी

इस भादों की बरखा में
गंगा में पानी जब हो गया है ख़तरे के निशान के पार
केन ने तो बाँदा को जल प्रलय में डुबो दिया है
(चिंता होती है, कैसे हैं कवि केदार
बाँदा की झोंपड़ियों, दियासलाइयों, बच्चों के साथ-साथ अपनी कविताओं के काग़ज़ों को
दोनों हाथों में समेटे
कौन-सी सूखी जगह पाएँगे अपना उमड़ता हृदय लिये)
तब यह असी
एक सुबह नाले से नदी में बदल जाती है
बालसूर्य देखता है उसमें अपना चेहरा
छोड़कर उमड़ी अधीर गंगा-यमुना गोमती-गोदावरी को
इस भरी-भरी असी को ही बनाता है
अपनी आँखों में आँखें डालने वाला आईना—
मित्रस्य चक्षुषा ताकने से पहले पूरी पृथ्वी को—
उन दो-चार ख़ुश तटवासी पेड़ों के साथ जो रातोंरात वृक्ष बन गए हैं
पड़ोसी निकटस्थ नये निर्द्वंद्व मकानों के जिनका चेहरा फक्क है
रंग-रोगन के बावजूद
रातोंरात पुराना पड़ा-सा
फ़िक्रमंद

अब आज
नगर में आया हो कोई महामहिम
देश-परदेश का
कोई धर्मगुरु, कोई जादूगर या कोई भी नेकनाम या बदनाम
होटल के पलंग पर या अख़बार के पन्ने पर ही पसरा रहेगा
पाँव धरने की जगह न होगी आज नगर की आँखों में
नगर की आँखों में बसी है आज असी
असी की पुलिया पर रुकते हैं आज दोपहिए और दोपाए
ठिठकते हैं तिपहिए
यातायात है हर्षावरुद्ध
नदी के नाला बनने पर निकली थी न जो आह हृदय से
नाले के नदी बनने पर निकली है वह विस्फारित आँखों से वाह बन!

नदी और साबुन

नदी!
तू इतनी दुबली क्यों है
और मैली-कुचैली
मारी हुई इच्छाओं की तरह मछलियाँ क्यों उतारे हैं
तुम्हारे दुर्दिनों के दुर्जल में
किसने तुम्हारा नीर हरा
कलकल में कलुष भरा
बाघों के जुठारने से तो
कभी दूषित नहीं हुआ तुम्हारा जल
न कछुओं की दृढ़ पीठों से उलीचा जाकर भी कम हुआ
हाथियों की जल-क्रीड़ाओं को भी तुम सहती रहीं सानंद
आह! लेकिन
स्वार्थी कारख़ानों का तेज़ाबी पेशाब झेलते
बैंगनी हो गई तुम्हारी शुभ्र त्वचा
हिमालय के होते भी तुम्हारे सिरहाने
हथेली-भर की एक साबुन की टिकिया से
हार गईं तुम युद्ध!

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