अब

अब कहाँ है ज़बान की क़ीमत
हर नज़र पुर-फ़रेब लगती है
हर ज़ेहन शातिराना चाल चले
धड़कनें झूठ बोलने पे तुलीं
हाथ उठते हैं बेगुनाहों पर
पाँव अब रौंदते हैं फूलों को
अब न इस्मत न जान की क़ीमत
अब कहाँ है ज़बान की क़ीमत

अब न ईसारमुरव्वत है
अल-ग़रज़ है अगर मुहब्बत है
जिस्म से रूह तक ग़लाज़त है
आदमी कैसे आदमी को कहूँ?
आदमी, आदमी नहीं लगता!

अमीरे-शहर फिर भी चुप

हमारे शहर में
मज़लूम की लम्बी क़तारें हैं
अमीरे-शहर फिर भी चुप

हमारे शहर में
मफ़्लूक की लम्बी क़तारें हैं
अमीरे-शहर फिर भी चुप

हमारे शहर में
मक़्तूल की लम्बी क़तारें हैं
अमीरे-शहर फिर भी चुप

हमारे शहर में
आवाम की लाशें बरहना हैं
अमीरे-शहर का तो पैरहन
सोने से महँगा है।

एक ख़्वाब

शहर में
रात, सुब्ह, दोपहर में
आश्ना से अजनबी से
दोस्तों की दोस्ती से
रौशनी से हर किसी से
डर सा लगता है
हाँ मुझको डर सा लगता है
कि अब तो
दिल ये कहता है
निकल चल
अब यहाँ से दूर
किसी जंगल की जानिब
या पहाड़ी पर
बनाएँ फिर नया इक घर
बसाएँ ऐसी बस्ती हम
जहाँ डर हो न ख़ंजर हो, न रहबर हो, न कोई पहरा
जहाँ दिल में न हो कोई ग़म
न कोई आँख हो पुरनम
बसाएँ ऐसी बस्ती हम!

मलाल

गर मिरा हिस्सा नहीं
कुछ ज़िंदगी तिरी धूप में
गर मिरा हिस्सा नहीं
तिरे रंग में तिरे रूप में
गर मेरा हिस्सा नहीं
तिरे आग में तिरे राग में
गर मेरा हिस्सा नहीं
तिरे आब में तिरे ख़्वाब में
गर मेरा हिस्सा नहीं
तिरे ज़र्द सुर्ख़ गुलाब में
गर मेरा हिस्सा नहीं
तिरे बाग़ के किसी फूल में
तो बचा हूँ मैं क्यों फ़िज़ूल में
तू मिला दे मुझको भी धूल में!

तेरे मेरे ख़्वाब

तेरे काले ख़्वाबों की
ताबीर देखता हूँ मैं

तलवार देखता हूँ मैं
त्रिशूल देखता हूँ मैं
बेगुनाह पाँवों में
ज़ंजीर देखता हूँ मैं
अपने उजले ख़्वाबों की
तस्वीर देखता हूँ मैं

कि प्यार देखता हूँ मैं
और फूल देखता हूँ मैं
प्यार और फूलों की
तासीर देखता हूँ मैं।

'तुम इस बात पर झुँझलाती हो कि तुम्हें मुझे छुपाना पड़ रहा है'

किताब सुझाव:

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अहमद नियाज़ रज़्ज़ाक़ी
शायर चित्रकार। शब-ख़ून, उर्दू चैनल, तस्तीर, वागर्थ समेत डेढ़ दर्जन पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। चार एकल प्रदर्शनियों के अलावा दर्जन भर महत्वपूर्ण सामूहिक प्रदर्शनियों में भागीदारी। सम्पर्क- [email protected]

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