‘Poos Maagh’, a poem by Anant Raj Singh

यहाँ ठण्ड सिमटकर रह गयी है
दिन-भर खुली किताबों में लटके रहना
या फिर बाहर भाग-दौड़
या एक छोटे केबिन में कम्प्यूटर के सामने दिन का खपना
और बचा-खुचा रज़ाई में।

दिल कचोटता है जब ज़हन में याद आती है वो चीज़ें,
जब सुबह, सुबह होती थी,
कोहरे से सनी या पूरी उजली,
और फिर दिखती थी
सूरज की पहली किरण,
जब दुबके पिल्ले निकल आते थे पुआलों से बाहर,
ओस पानी की एक बूँद बनकर डुलती थी पत्तों पर,
मेड़ों की घास से जब भीग जाते थे पाँव,
भीनी महक आती थी धान की पकी बाली से,
मटर के फूलों से लटके हुए पपटे,
सरसों के पीलेपन में रंगा खेत,
जहाँ-तहाँ गेंदे, गुलाब के झूमते फूल,
जिनपर मण्डराती तितलियाँ और भौरें,
वो कच्चे बेर, फलों से लदा अमरूद, आँवलें और नींबू के पेड़,
कोल्हू से निकलता गन्ने का ताज़ा रस,
पकते गुड़ की सोंधी-सी ख़ुशबू,
ट्यूबेल से पानी की छप-छप,
गेंहू और आलू की ज़मीन को तर करती धारा,
फावड़े और कुदाल की आवाज़,
बाँस में हवाओं की सरसराहट,
बीच दुपहरी के वक़्त,
छप्पर में ताश फेंटते कुछ लोग,
बाग़ में क्रिकेट का मचा घमासान,
गुल्ली डण्डा, लट्टू या कंचे की धूम,
खुले मैदान में डोर पकड़े भागते बच्चे,
या फिर आँगन में पसरी धूप में,
एक खटोले पर लेटा मुन्ना,
वहीं लुढ़का पड़ा एक लोटा
एक जूठी थाली,
मोढ़े पर बैठी माँ की खट-खट चलती उँगलियाँ,
ऊन-सलाई की मशीन,
मुँडेर से उड़कर ज़मीन पर भात चुगती गौरैया,
कव्वे का बेसुरा कण्ठ,
या कबूतर की अनवरत गुटरगूँ,
गीली मिट्टी से निर्माण करती बिरनी अपने छत्ते,
आराम मुद्रा में जुगाली करते गाय-भैंस,
खूँटे के पगहे को उमेठता बछड़ा,
शाम के धुँधलके में लौटती साइकिल की टन-टन,
सूखे पत्तों-लकड़ियों का जलता तपता,
धुएँ से भरा काला जालों में लिपटा फूस,
राख में धीरे से खोसा आलू, शकरकंद या छीमी,
आग के लुक्कारे में चट-चट फूटती गाँठ,
या सात बीस पर रेडियो से आता प्रादेशिक समाचार,
नींद से बोझिल आँखें
ऊपर से बाबा की बात,
क़िस्से-कहानियाँ, अनुभव और डाँट,
फिर न जाने कब बीत जाती
वो पूस और माघ की रात।

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अनन्त राज सिंह
बेफ़िक्र, बेबाक, बेख़ौफ़, मनमौजी हूँ मगर सच्चा हूँ, मुझे अकेला रहने दो यारों! मैं अकेला ही अच्छा हूँ।

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