प्राणिविद्या, भूगर्भविद्या, खनिजविद्या, कीट-पतङ्गविद्या आदि जितनी प्राकृतिक विद्यायें हैं उनका अध्ययन करने के लिए प्रत्यक्ष अनुभव की बड़ी आवश्यकता होती है। केवल पुस्तकों के सहारे इन विद्याओं का अध्ययन अच्छी तरह नहीं किया जा सकता। इसी से प्रत्येक देश में अजायबघर और पुराणवस्तु-संग्रहालय स्थापित किये जाते हैं। कलकत्ते में भी ऐसे अजायबवर और संग्रहालय हैं। ऐसे संग्रहालय में अध्ययनशीलों के सुभीते के लिए भिन्न-भिन्न विद्या-विभागों से सम्बन्ध रखने वाले पदार्थों का नया-नया संग्रह दिन-पर-दिन बढ़ता ही रहता है।

पुराणवस्तु-संग्रहालयों के प्राणिविद्या-सम्बन्धी विभाग में प्रायः सभी जीव-जन्तुओं के शरीरों, और भूगर्भ-विद्या-विशारदों के द्वारा आविष्कृत प्राचीन समय के जीव-जन्तुओं के कंकालों का संग्रह किया जाता है। परन्तु, प्राचीनकाल के जन्तुओं के कङ्कालमात्र देखने से देखनेवालों को उन जन्तुओं की आकृतियों और डील-डौल का पूरा-पूरा ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। इस कारण अब विद्वान् और विज्ञानवेत्ता लोग, पुस्तकों में लिखे हुए वर्णनों के अनुसार, कङ्काल की बनावट को आधार मानकर, उन जन्तुओं की मूर्तियाँ बनाने लगे हैं।

जर्मनी में हैम्बर्ग के पास स्टेलिंजन (Stellingen) नामक एक शहर है। वहां कार्ल हेजनबेक (Carl Hagenback) नामक एक महाशय की विख्यात पशु-शाला है। इस पशु-शाला में अति प्राचीन समय के भयङ्कर जन्तुओं की अनेक मूर्तियाँ बनवाकर रक्खी गई हैं। जिन जन्तुओं की ये मूर्तियां हैं उनका वंश नाश हो चुका है। अब वे कहीं नहीं पाये जाते। करोड़ों वर्ष पूर्व वे इस पृथ्वी पर विद्यमान थे।

जर्मनी के प्रसिद्ध पशु-मूर्तिकार जे पालेनबर्ग (J. Pallenberg) ने इन मूर्तियों का निर्माण किया है। ये आश्चर्यजनक मूर्तियाँ सिमेंट की बनाई गई हैं और एक छोटे से जलाशय के इर्द-गिर्द चारों तरफ रक्खी गई हैं। जलाशय का विस्तार सात-आठ बीघे में हैं। कुछ मूर्तियाँ पानी के पास ही, तट से लगी हुई झाड़ियों के भीतर, खड़ी की गई हैं। कुछ पानी के भीतर भी हैं। वे हैं मगरों, घड़ियालों आदि जलचर जीवों की । कई मूर्तियों में ये जन्तु अपने सजातियों के साथ लड़ते-भिड़ते भी दिखाये गये हैं।

सबसे पहले जो मूर्ति बनाई गई थी वह इगुएनोडन नाम के एक जन्तु की है। यह प्राणी एक प्रकार का तृणभोजी जन्तु था। इसकी लम्बाई बहुधा 80 फुट तक पहुंच जाती थी। उक्त पशु-शाला में इस जन्तु की लम्बाई कोई 66 फुट है। यह जीव अब संसार में नहीं पाया जाता; इसकी जाति ही नष्ट हो गई है। 1898 ईसवी में इसी तरह के और भी कोई पच्चीस नमूने तैयार किये गये थे। जिन कङ्कालों को देखकर ये नमूने तैयार किये गये थे वे सब बेलजियम देश के वनिंसोर्ट नामक स्थान की कोयले की खान से निकले थे। इस जन्तु के चार पैर होते थे। आगे के पैर छोटे और पीछे के बड़े होते थे। प्राणिविद्या विशारदों का अनुमान है कि इस जन्तु को केवल पिछले पैरों के सहारे भी चलने का अभ्यास था। इसके अगले पैरों की उँगलियाँ कटार के सदृश होती थीं। उनकी लम्बाई 18 इंच तक थी। यह 25 फुट तक ऊंचा उठ सकता था । उस अवस्था में इसका सिर आस-पास के पेड़ों की चोटी से भी ऊपर निकल जाता था।

पूर्वनिर्दिष्ट नमूनों को यथाशक्ति विशुद्ध बनाने की पूरी चेष्टा की गई है। मूर्तिकार ने इस कार्य का आरम्भ करने के पहले इंग्लैंड के प्रायः सभी पुराणवस्तु-संग्रहालयों को देखा, विज्ञान-विशारदों से इस विषय में सम्मतियां लीं और जितने कङ्काल आजतक इस तरह के प्राप्त हुए हैं सबके चित्र बनाये। इसके सिवा न्यूयार्क (अमेरिका) के आश्चर्य्यजनक पदार्थालय के अधिकारियों ने भी मूर्तिकार को कितने ही बहुमूल्य चित्र और हड्डियों की माप आदि देकर उसकी सहायता की। इस प्रकार आवश्यक ज्ञान प्राप्त करके मूर्तिकार ने पहले कुछ मिट्टी के नमूने तैयार किये। फिर उन्हें प्रतिष्ठित विज्ञान-वेत्ताओं के पास सम्मति के लिए भेजा। जिस नमूने के विषय में कुछ मत-भेद हुआ उसे तोड़कर उसने दूसरा नमूना बनाया और फिर उसे विद्वानों के पास अवलोकनार्थ भेजा। जब सब नमूने विशुद्ध स्वीकृत हो गये तब उनके आधार पर सिमेंट की बड़ी-बड़ी मूर्तियां बनाई गईं।

इन मूर्तियों में छिपकली की जाति के कई महाभयङ्कर प्राणियों की भी मूर्तियाँ हैं। ये प्राणी कोई 50 लाख से लेकर एक करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी पर जीवित थे। इन सबके चार-चार पैर होते थे। इनमें से कितने ही जीव इगुएनोडन की तरह केवल पिछले पैरों के बल भी चल सकते थे। किन्तु अधिकांश प्राणी चारों पैर ज़मीन पर रखकर ही चलते थे। जब वे जमीन पर घूमते थे तब कोई एक वर्ग गज़ भूमि उनके पैरों के नीचे छिप जाती थी। विद्वानों का अनुमान है कि जल थल, दोनों जगह, रहने वाले प्राचीन समय के जन्तुओं में यही जन्तु सबसे बड़े थे। इनके रूप और आकार में परस्पर बहुत अन्तर होता था । किसी का चमड़ा चिकना होता था, किसी का ढाल के चमड़े की तरह मोटा और सख्त। इनमें से एक दो शाक-भोजी थे; शेष सब मांस-भोजी।

उक्त पशु-शाला में डिप्लोडोकस नामक जन्तु की भी एक मूर्ति है। उसकी भी लम्बाई 66 फुट है। इस जन्तु का एक कङ्काल अमेरिका के एक आश्चर्यजनक पदार्थालय में रखा है। यह मूर्ति उसी के आधार पर बनाई गई है। यह कङ्काल 1899 ईसवीमें मिला था।

प्राणिविद्या के वेत्ताओं ने निश्चित किया है कि डिप्लोडोकस की पूँछ छिपकली की पूछ की तरह होती थी और खूब मोटी होती थी। उसकी गर्दन शुतुमुर्ग की गर्दन की तरह लम्बी और लचीली होती थी। बदन छोटा, पर बहुत मोटा होता था। पैर हाथी के पैरों की तरह बड़े और मोटे होते थे।

जीवितावस्था में इन जन्तुओं का वजन 675 से 810 मन तक होता रहा होगा। ये जन्तु जल में भी रहते थे और आवश्यकता होने पर थल में चले आते थे। किन्तु उथले जल में रहना ये अधिक पसन्द करते थे और घास-पात आदि खाकर जीवन-निर्वाह करते थे। यद्यपि इन जन्तुओं का आकार चतुष्पाद जन्तुओं में सबसे बड़ा था, तथापि ये आत्मरक्षा करने में असमर्थ थे। इसी से बहुधा इनसे छोटे भी मांसभक्षक जन्तु इन्हें मार डालते थे। इनका मस्तिष्क बहुत छोटा होता था। इसी से शायद ये अपनी रक्षा न कर सकते थे, क्योंकि बड़ा मस्तिष्क आत्मरक्षा करने की अधिक शक्ति और अधिक बुद्धि रखने का प्रदर्शक है।

इन प्रकाण्ड जन्तुओं के नामों की कल्पना यद्यपि अलग-अलग भी की गई है, तथापि ये सब एक ही साम्प्रदायिक नाम से अभिहित होते हैं । वह नाम है—दाइनोंसौर (Dionosaur) जो संस्कृत शब्द दानवासुर से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। यह नाम बहुत ही अन्त्रर्थक है। जीवधारियों में, उस समय, ये निःसन्देह असुर या दानव के अवतार थे।

उक्त पशुशाला में एक और जन्तु की मूर्ति है। उसका नाम स्टेगोसौरस (Stegosaurs) कल्पित किया गया है। यह जन्तु अपनी श्रेणी के जन्तुओं में सबसे अधिक बलवान् था। इसकी लम्बाई कोई 25 फुट थी। इसकी पीठ पर बहुत कड़े छिलके या दायरे से होते थे। कोई-कोई छिलका, व्यास में, एक-एक गज होता था। इसकी पूछ पर लम्बे-लम्बे आठ कांटे होते थे। इस अदभुत जन्तु के पन्द्रह बीस कङ्काल एक पहाड़ पर अध्यापक मार्श को मिले थे। इन कंकालों के दांतों की बनावट देखकर विद्वानों ने निश्चय किया है कि ये जीवधारी वनस्पति-भोजी थे।

दाइनोसौर श्रेणी का एक और विलक्षण जन्तु ट्राइसरट्राप (Tricertrop) कहाता है। इस जन्तु की भी ठठरियाँ पहाड़ों पर मिली हैं। इसकी खोपड़ी कोई सात फुट लम्बी है और त्रिकोणावृत्ति है। खोपड़ी की हड्डी में भी विलक्षणता पाई जाती है। यह जन्तु कई बातों में दरियाई घोड़े और गैंडे से मिलता-जुलता जान पड़ता है। किन्तु इसमें दरियाई घोड़े से एक विशेषता है। वह यह कि इसकी पीठ की हड्डी के टुकड़े गोल हैं और इसके मस्तक पर तीन सींग हैं। इसका भी मस्तिष्क बहुत छोटा होता था। अध्यापक मार्श का मत है कि इसके अङ्गों की बनावट बहुत अस्वाभाविक होने के कारण ही इसकी जाति नष्ट हो गई। पशु-शाला में इस जन्तु के दो नमूने रखे गये हैं। एक में यह जन्तु जलाशय के किनारे, पानी के भीतर, खड़ा दिखाया गया है। दूसरे में वह पानी में आधा डुबा हुआ है।

दाइनोसौर श्रेणी के जन्तुओं की उत्पत्ति के पहले पृथ्वी पर प्लेसिओसौरियन (Plesiosaurian) अर्थात् एक प्रकार की सामुद्रिक छिपकलियों का निवास था। उनकी शक्ल-सूरत आधी मछली की और आधी सरीस्टप की थी। उनकी गर्दन लम्बी होती थी और सिर छिपकली के सिर की तरह का। दाँत घड़ियाल के दांतों से मिलते-जुलते थे। डैने व्हेल के डैनों के समान होते थे। वे जल के भीतर भी तैर सकते थे और उसकी सतह के ऊपर भी। ऊपर तैरते समय वे पास उड़ती हुई चिड़ियों को लपककर पकड़ लेते और उन्हें निगल जाते थे।

पुराकाल के इन भयङ्कर जन्तुओं के, सब मिलाकर, कोई तीस नमूने बनाये और पूर्वोल्लिखित पशु-शाला में रक्खे गये हैं। उनमें कई घड़ियालों, विलक्षण मछलियों और डैनेवाली छिपकलियों की भी मूर्तियां हैं। कुछ मूर्तियां जलाशय के जल में तैरती हुई भी दिखाई गई हैं।

ऊपर जिन मूर्तियों का वर्णन किया गया है उनमें से अधिकांश मूर्तियाँ एक से अधिक संख्या में तैयार करके अलग भी रख दी गई हैं। कुछ मूर्तियां बड़ी, कुछ छोटी, कुछ मंझोले आकार की हैं। वे सब बेचने के लिए हैं। जो चाहे खरीद सकता है। प्राणिविद्या में प्रवीणता प्राप्त करने के इच्छुकों को इस प्रकार की मूर्तियाँ देखने और उनके अवयव तथा संगठन का ज्ञान प्राप्त करने से बहुत लाभ होता है।

[फरवरी 1923]

महावीर प्रसाद द्विवेदी
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864–1938) हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक थे। उन्होने हिंदी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की और अपने युग की साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। उनके इस अतुलनीय योगदान के कारण आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा युग 'द्विवेदी युग' (1900–1920) के नाम से जाना जाता है।