स्वयं से संवाद में
आकार लेती हैं,
प्रार्थनाएँ मन की
थाह लेती हैं।
उगती है दिल की
कच्ची ज़मीं पर,
प्रार्थनाएँ अंधेरों में
पनाह लेती हैं।

उसके रचे से बचे
के लिए होती हैं कभी,
प्रार्थनाएँ परमेश्वर
की चाह मान लेती हैं।

भिगों देती हैं आँसुओं से,
प्रार्थनाएँ अनुग्रह के फूल देती हैं।
निरापद करती हैं भावना को
प्रार्थनाएँ नेक इंसान देती हैं।

गर हो परमेश्वर से प्रीत सघन
न हो कोई कामना न कोई अहम,
प्रार्थनाएँ परमेश्वर का भान देती हैं।
देखा नहीं उसको किसी ने कभी,
प्रार्थनाएँ ही परमेश्वर को प्राण देती हैं।

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शिल्पी

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