‘भाषायी असमानता को हमारे शिक्षण-संस्थान जन्म दे रहे हैं’ : प्रमोद रंजन से पंकज पुष्कर की बातचीत
पंकज पुष्कर: जन्म से लेकर अब तक आपकी शैक्षिक और भाषायी यात्रा में कैसे-कैसे अनुभव हुए हैं? आपका किस भाषा से क्या रिश्ता है? यह कब और कैसे बना? आप अलग-अलग गतिविधियों में कौन-कौन-सी भाषाएँ इस्तेमाल करते हैं?
प्रमोद रंजन: मेरा जन्म मगही भाषी परिवार में हुआ और बचपन नाना-नानी के साथ बीता है। नाना का परिवार आर्यसमाजी था। नाना चांद, माधुरी, सरस्वती आदि पत्रिकाओं के ग्राहक थे और जब मैंने होश सम्भाला, उस समय तक ये पत्रिकाएँ बन्द हो चुकी थीं, लेकिन इनके पुराने अंक घर में मौजूद थे। नाना ‘शुद्ध’ हिन्दी बोलने और लिखने पर बहुत ज़ोर देते थे और मुझे हिन्दी व्याकरण और मुहावरे आदि सिखाया करते थे। उनका यह सिखाना अनौपचारिक नहीं होता था, बल्कि वे रोज़ एक क्लास लेते थे, जिसमें मुझे हिन्दी का पाठ पढ़ना होता था।
इन पत्रिकाओं और नाना की उस क्लास में मैंने हिन्दी के संस्कार सीखे। हाईस्कूल में एक शिक्षक मिले, उन्होंने भी हिन्दी साहित्य के प्रति मुझमें रस जगाया।
मेरी माँ शिक्षिका हैं। उनसे मैं मगही और हिन्दी, दोनों में बात करता हूँ। सामान्यतः जब बातचीत स्नेहसिक्त हो तो मगही और जब औपचारिक हो तो हिन्दी।
पंकज पुष्कर: शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में अंग्रेज़ी-हिन्दी दो राजभाषाएँ और बहुत-सी जन भाषाएँ—आदिवासी भाषाएँ हैं। कॉलेज/यूनिवर्सिटी में इन भाषाओं के बीच रिश्ते कैसे हैं—बराबरी के या ऊँच-नीच के? इस सन्दर्भ में आपके अनुभव क्या हैं?
प्रमोद रंजन: हिन्दी क्षेत्र के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी और अंग्रेज़ी के साथ अन्य सभी बोलियों के रिश्ते में भेदभाव है। अंग्रेज़ी सबसे ऊपर है, हिन्दी उसके बाद और अन्य बोलियाँ लगभग अछूत। हमारे शिक्षण संस्थान इस भेदभाव को बढ़ाने नहीं, बल्कि इस भेदभाव को पैदा करने के कारख़ाने हैं। दक्षिण भारत की बात मैं नहीं जानता। लेकिन हिन्दी क्षेत्र और पूर्वोत्तर भारत में ऐसा ही है।
पंकज पुष्कर: छात्रों का आत्म-विश्वास, भागीदारी और करिअर भाषायी विषमता से कैसे प्रभावित होते हैं? इस सम्बन्ध में आपके अनुभव क्या हैं?
प्रमोद रंजन: प्रभावित तो होते ही हैं। इससे सम्बन्धित अनेक मार्मिक प्रसंग मैंने देखे हैं। कभी सम्भव हुआ तो उन्हें लिखूँगा।
पंकज पुष्कर: कॉलेज/विश्वविद्यालय इन भाषायी असमानताओं को दूर करने का काम करते हैं, बनाये रखते हैं या गहरा करने का काम करते हैं?
प्रमोद रंजन: जैसा कि मैंने कहा कि स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय न सिर्फ़ भाषायी असमानताओं को गहरा करते हैं, बल्कि अनेक प्रकार से ये इसे पैदा भी करते हैं। आप सोचिए, ये भाषायी असमानताएँ कहाँ से पैदा हुई हैं—आपको स्पष्ट दिखेगा कि इन्हें पैदा करने में हमारे शिक्षण-संस्थाओं की ही मुख्य भूमिका है। हमारे शिक्षण-संस्थानों की बुनियाद ही इस प्रकार गढ़ी गई है कि वे अनेक अन्य असमानताओं के साथ-साथ भाषाई असमानताओं का भी निर्माण करें। हमारे संस्थान ज्ञान के स्वरूपों को समान महत्त्व नहीं देते, बल्कि उस ज्ञान को प्रश्रय देते हैं, जिन पर अभिजन तबकों का एकाधिकार है। जो ज्ञान देश के बहुसंख्यक आम जन की थाती रहा है, वे उसे निम्न बताते हैं और नाना प्रकार की विधियाँ अपनाकर उसे अनुपयोगी बना डालते हैं। इस कारण बहुजन तबकों से आने वाले विद्यार्थियों की राह कंटकाकीर्ण हो जाती है।
पंकज पुष्कर: क्या आपको अंग्रेज़ी या संस्कृतनिष्ठ हिन्दी न जानने के कारण कभी अपमान, असमानता या भेदभाव महसूस हुआ है? इस सम्बन्ध में आपके अनुभव क्या हैं?
प्रमोद रंजन: अंग्रेज़ी को लेकर जिस प्रकार के भेदभाव का शिकार अन्य भारतीय भाषाओं को बोलने वालों को होता है, उस पर तो वास्तव में अलग से किसी टिप्पणी की आवश्यकता ही नहीं है।
मैं भी उसका शिकार रहा हूँ। एक निजी प्रसंग बताता हूँ। मैंने लगभग एक दशक तक एक द्विभाषी पत्रिका (अंग्रेज़ी-हिन्दी) का सम्पादन किया। वह पत्रिका मेरे नाम से ही जानी गई। यानी, सामान्यतः लोग मुझे ही उसका सम्पादक समझते थे। लेकिन वास्तव में, मैं उसका सम्पादक कभी नहीं रहा, कम-से-कम काग़ज़ पर तो नहीं ही रहा। मेरा पद नाम वहाँ ‘हिन्दी-सम्पादक’ था। मैं चाहता था कि मेरा नाम ‘सम्पादक’ के रूप में जाए। लेकिन पत्रिका के मालिकों का कहना था कि चूँकि मैं हिन्दी भाषी हूँ इसलिए मेरा नाम एक द्विभाषी पत्रिका के ‘सम्पादक’ के रूप में नहीं जा सकता। उन्होंने मुझे ‘मैनेजिंग एडिटर’ बनाया, लेकिन ‘एडिटर’ नहीं बनने दिया। यह मामला सिर्फ़ भाषा तक ही सीमित नहीं था, भाषा और साम्प्रदायिकता कैसे घुल-मिल जाती है, यह प्रसंग इसका भी उदाहरण था। उस पत्रिका के मालिक ईसाई थे और उन्हें सम्पादक पद के लिए कोई अंग्रेज़ी भाषी ईसाई ही चाहिए था। उन्होंने बाद में मेरी जगह एक ऐसे अंग्रेज़ी भाषी ईसाई को चुना, जो हिन्दी में सिफ़र था। द्विभाषिकता की नज़र से देखें तो जितनी मुझे अंग्रेज़ी आती थी, उसके समतुल्य उसका हिन्दी का ज्ञान नगण्य था। लेकिन वह अंग्रेज़ी भाषी और ईसाई होने के कारण उनकी नज़र में द्विभाषी पत्रिका के लिए योग्य था। मैं हिन्दी भाषी होने कारण अयोग्य।
हालाँकि अक्सर सामान्य लोग और अन्य विद्वत्जन आपके काम को समझते हैं। लेकिन तकनीकी स्तर पर बाधाएँ आती हैं, और ये बाधाएँ छोटी नहीं होतीं। भाषा आपके काम में बाधक नहीं बनती, लेकिन अगर आप अंग्रेज़ी में काम नहीं कर रहे हैं तो आपके काम का मूल्याँकन प्रभावित होता है।
संस्कृतनिष्ठता को लेकर कोई स्पष्ट अनुभव तो नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि सरल भाषा में अपनी बात कहने पर अनेक हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादकों को बात सारहीन लगती है। थोड़ी संस्कृतनिष्ठता की छौंक हो, तो वह उन्हें प्रकाशन योग्य लगती है।
पंकज पुष्कर: राजभाषा हिन्दी के बारे में एक वर्ग का कहना है कि इसमें से उर्दू और आँचलिक भाषाओं के शब्द निकालकर संस्कृत के शब्द डालने चाहिए। हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बनाने के परिणाम सकारात्मक हैं या नकारात्मक?
प्रमोद रंजन: यह तो नकारात्मक और मूर्खतापूर्ण बात है कि उर्दू और आँचलिक भाषाओं को बाहर कर दिया जाए। हाँ, लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि संस्कृतनिष्ठता हिन्दी को ज्ञान की भाषा बनाने में मददगार है। सिर्फ़ उर्दू और बोलियों के सहारे इसे ज्ञान की भाषा नहीं बनाया जा सकता। अगर हिन्दी को ज्ञान की भाषा बनाना है तो उसमें लोक और शास्त्र दोनों के भाषायी तत्व मौजूद होने चाहिए। सिर्फ़ शास्त्र होने से वह ज्ञान की नहीं, पाखण्ड की भाषा होगी और सिर्फ़ लोक होने से रोज़मर्रा के कामकाज-भर की।
पंकज पुष्कर: आपके अंग्रेज़ी भाषा से रिश्ते कैसे रहे हैं? क्या आपको अंग्रेज़ी से कभी डर लगा है, कभी अपनापन रहा है, कभी प्यार हुआ है? ज्ञान की भाषा के रूप में अंग्रेज़ी की आपके जीवन में क्या भूमिका है?
प्रमोद रंजन: अंग्रेज़ी से प्यार तो है ही। पता नहीं यह मजबूरी में विकसित हुआ है, या उस भाषा में व्याप्त ज्ञान से। सोचता हूँ तो लगता है कि पहली बात ही ज़्यादा सही लगती है।
[प्रमोद रंजन लेखक, पत्रकार और शिक्षक हैं। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया है तथा हिन्दी की दुनिया में अपने वैचारिक लेखन के लिए जाने जाते हैं। पंकज पुष्कर प्रखर कार्यकर्ता और अध्येता हैं। उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में अध्यापन किया है तथा दिल्ली विधान सभा के सदस्य रहे हैं।]
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