साक्षात्कार: हरिवंशराय बच्चन (बच्चन रचनावली खंड 9 से)
साक्षात्कारकर्ता: कुमारी विभा सक्सेना, 1979
प्रश्न— आपने अपनी आत्मकथा के प्रथम भाग ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ में बहुत ही साहसपूर्वक चम्पा के साथ अपने सम्बन्धों का उल्लेख किया है। विशेषतः पृष्ठ 214 के प्रसंग को पढ़कर आलोचकों ने पूछा भी है कि आपने कोकशास्त्र लिखा है अथवा पातक कथा? पर मैं आपकी इस मान्यता से सहमत हूँ कि ‘ईमानदारी आत्मकथा की पहली शर्त है’। सच्चाई तो सच्चाई ही है, उसे नैतिकता से बाँधना अनुचित है। इस सन्दर्भ में मैं जानना चाहती हूँ कि तेजी जी से विवाह के पश्चात् सुहागरात आदि के वर्णन के सन्दर्भ में जब आप यह लिखते हैं कि हर बात को गद्य वहन नहीं कर सकता, पाठक यहाँ ‘मिलन यामिनी’ खोल लें—तो क्या दोहरे मानदण्ड नहीं अपनाते? चम्पा-प्रसंग को गद्य वहन कर सकता है तो तेजी-प्रसंग को क्यों नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि चम्पा-प्रसंग को आप गद्य में इसलिए ढाल पाए कि उससे आपकी ‘बोल्डनेस’ प्रमाणित होती है एवं तेजी-प्रसंग में आप इसलिए मौन हो गए कि वह अशोभनीय होता? ये दुहरे मानदण्ड क्या आत्मकथा की नैतिकता के समक्ष प्रश्नचिह्न नहीं लगाते?
उत्तर— ऐसा करना दोहरा मानदण्ड अपनाना लग सकता है। पर समय, परिवेश और मनःस्थिति बदल जाने से सर्जक शायद ‘मानदण्ड’ बदलना आवश्यक समझता हो। यह बदलाव भी उतना सचेतन में सम्भवतः न हो, जितना अवचेतन में। सृजन की नैतिकता और समाज की नैतिकता में कुछ अन्तर तो मानना होगा। सृजन की नैतिकता वस्तुतः जीवन-प्रवाह की नैतिकता है—और वह सामाजिक नैतिकता से परिसीमित नहीं।
प्रश्न— लोकशील का पालन करते हुए आपने ज्ञानप्रकाश जौहरी और उनकी पत्नी के सम्बन्धों पर बहुत ही संक्षेप में प्रकाश डाला है। परन्तु प्रकाशवती का वर्णन न केवल अत्यन्त विस्तृत है अपितु उन पर आक्षेप लगानेवाला भी है। ‘प्रणय पत्रिका’ के एक गीत में आपने लिखा है : ‘पाप मेरे वास्ते है नाम लेकर आज भी तुमको बुलाना’। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि श्रीकृष्ण के प्रति आपके मन में सहानुभूति है। प्रकाशवती आपकी रचना से पूर्व और इस प्रसंग के पश्चात् एक सम्मानित महिला बन चुकी थीं। फिर उनके चरित्र का इस प्रकार अनावरण क्या लोकशील का उल्लंघन नहीं करता? क्या हम यह समझें कि जौहरी साहब आपके हितैषी थे, आपका गृहस्थ जीवन पुनः व्यवस्थित करने में उन्होंने सहयोग दिया था और प्रकाशवती ने आपके ग़लत भ्रमों को तोड़ा था, आपके दिल को आघात पहुँचाया था, इसी कारण यह भेद आपने बरता है। एक बात और। एक क्रान्तिकारी महिला से इस प्रकार की अपेक्षा कहाँ तक उचित थी? आप लिखते हैं कि वह बहुत कुछ छिपा सकती थी। फिर आप इतना सब कैसे जान पाए? अपनी ग़लती का फल आपको मिला—इस पर इतना आक्रोश क्यों?
उत्तर— मैंने लोकशील की उतनी ही सीमा मानी है जहाँ वह सच्चाई को विकृत न करे। परिस्थितियों के अनुसार, जिसका निर्णय लेखक का ही स्वत्वाधिकार है, यह सीमा कहीं ढीली भी की जा सकती है। उन सारे ब्यौरों में तो मैं न जाना चाहूँगा जिन्होंने कहीं मुझे सीमाओं को कसने और कहीं ढीली करने को प्रेरित या विवश किया है। इतना मान लूँगा कि लेखक की सच्चाई औरों की न भी हो।
प्रश्न— आपका एक गीत है—’तुम्हारे नील झील से नैन’। ‘बसेरे से दूर’ में आपने लिखा है कि यह गीत आपने उस समय लिखा जब रंगीन मौसम में आपको नैंसी का सामीप्य मिला। ‘नीड़ का निर्माण फिर’ में आपने इस गीत के पीछे आइरिस की याद होने का उल्लेख किया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘बसेरे से दूर’ में आइरिस की याद को छिपाते हुए तेजी जी के प्रति अपनी निष्ठा ज़ाहिर करने में आपके मन में ‘बीत गयी सो बात गयी’ वाली वृत्ति रही हो? जो हो, इस प्रकार आप तेजी जी के प्रति भले ही अपनी निष्ठा का प्रदर्शन कर पाए हों, आत्मकथा की प्रामाणिकता इससे सन्दिग्ध हुई है। क्या मेरी इस प्रतिक्रिया से आप सहमत हैं?
उत्तर— सृजन के क्षण में कहाँ-कहाँ के संस्कार, सम्बन्ध (Association), स्मृतियाँ जग-मिलकर बोलती हैं, इसे बताना बड़े-बड़े मनोवैज्ञानिकों के लिए भी सहज नहीं है। सर्जक स्वयं उनसे अचेत रहता है। परिपूर्ण सृजन के क्षण में चेतन, अवचेतन और अतिचेतन का कितना योगदान होता है यह सर्जक के सिवा दूसरा अनुभव नहीं कर सकता।
प्रश्न— ‘प्रवास की डायरी’ में आप लिखते हैं कि डैनिस आपकी कविताओं से इतना प्रभावित हुआ कि उसने लिखा: “It seems to me that something of the spirit of Gandhiji lives in you and finds expression in a very individual way wholly your own in your poetry and thought”. इस कथन के बाद आपकी टिप्पणी है कि शोधार्थी इस बात को नहीं समझ पाते। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आप बहुत धीमे से स्वयं को गाँधीवादी विचारधारा का घोषित करना चाह रहे हैं। पर आप तो दावा करते हैं कि आपने अपनी कविताओं में निजी जीवनानुभवों को ही अंकित किया है, फिर यह गाँधीवाद कहाँ से आ गया?
उत्तर— डेनिस ने Spirit of Gandhiji कहा था, यह गाँधीवाद और गाँधी विचारधारा का पर्याय नहीं है। गाँधी की Spirit ने अपने युग में एक-एक व्यक्ति को इतना Change किया था कि एक अर्थ में उससे उनका हत्यारा नाथूराम गोडसे भी मुक्त नहीं था। जीवन के निजी से निजी अनुभव भी अपने युग परिवेश की छाया से अपने को बचा नहीं सकते।
प्रश्न— क्षमा कीजिएगा, एक नितान्त व्यक्तिगत प्रश्न पूछने की धृष्टता कर रही हूँ। आपने अपनी जीवनानुभूतियों से प्रेरित होकर काव्य रचना की है। अपने मनोविज्ञान का यत्किंचित विश्लेषण भी आपने किया ही होगा—तभी तो आपने यह कहा है कि आप में अन्तर्निहित नारी प्रबल है। एक बात बताइए। आपके जीवन में जब भी कोई नारी आयी, आप यह क्यों मान बैठे कि वह आपका प्यार पाने की आकांक्षिणी ही थी? क्या प्रेम के अतिरिक्त और कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता? आपके मस्तिष्क में चम्पा-कर्कल-बच्चन का त्रिकोण इतनी गहराई से जम गया है कि आप सभी को इसी त्रिकोणीफ़्रेम में फ़िट करना चाहते हैं। श्यामा से विवाहित होने के बावजूद प्रकाशो की ओर आकृष्ट होना, एक क्रान्तिकारी महिला के आपके घर में शरण पाने के लिए रचे गए ढोंग को सच मान बैठना और यथार्थ सामने आने पर उसके चरित्र को अशोभनीय ढंग से चित्रित कर प्रतिशोध लेना, आइरिस की ओर आकृष्ट होना, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार और उनकी पत्नी के बीच स्वयं को देखना, उमा-आदित्य के बीच अपनी उपस्थिति का अहसास होना, श्यामा और अपने बीच मुक्तजी की उपस्थिति मानना, चम्पा-कर्कल के बीच उपस्थित रहना और तेजी जी की ओर अन्धगति से भागना एवं ओदेत का आकर्षण अनुभव करना—यह सब मनोवृत्ति का कोई असामान्य रूप तो नहीं है।
उत्तर— पुरुष-स्त्री का हर आकर्षण यौनाकर्षण होता है, इसे आधुनिक मनोविज्ञान ने माना है—फ़्रायड का नाम इस खोज से सम्बद्ध है। भारत के मनीषियों ने तो अधिक खुले शब्दों में हज़ारों बरस पहले यह कहा था कि पुरुष को देखते ही स्त्री की योनि गीली हो जाती है। (शायद यह कभी महाभारत में मैंने पढ़ा था—शब्दावली में थोड़ा-बहुत परिवर्तन हो सकता है—अब मुझसे पर्व, अध्याय, श्लोक संख्या न पूछें—खोजना मेरे लिए सम्भव नहीं—पर कोई खोजना चाहेगा तो मेरी बात को झूठ नहीं पाएगा।)