‘Prem Aprem’, a poem by Rupam Mishra

ठिठक जाती हूँ! देखकर उस दरीचे को
जिसे कभी अनजाने में खोल बैठी थी

ध्यान से देखा तो उस पर अंगारे जड़े थे
और आत्मा तक उस जलन से कराह उठी थी

उस पर नज़र पड़ते ही
चौंक जाती हैं स्मृतियाँ आत्मपीड़ा से
कि आख़िर किस जन्म का कौन-सा अभिशाप था
जो ख़त्म ही नहीं होता!

गले की पीड़ा बढ़ती जा रही है
अनायास नहीं है यह पीड़ा
गले में कुछ अनकहा अटका रह गया है,
मुक्ति के लिए मुखर होना पड़ेगा
शब्द हैं कि ज़िद पर अड़े हैं कि उनको तुम्हीं सुनो!

बात तुम्हारी हो
और आँखे आचमन न करें
तो भला कैसे हो प्रेम की पूर्णाहुति!

तुमसे त्याज्य होना ही
सही सन्दर्भ में प्रेम का मोक्ष था!
फिर फ़ासले क्यों बेचैन करते हैं!?

मेरे भरे जीवन में तो तुम्हारी कोई जगह नहीं थी!
लेकिन तुम बरबस आये!
और जब गये तो एकदम से क्यों नहीं गये
ठहर क्यों गये मेरे अस्तित्व में

तुम्हारे परिचय को मैं प्रेम अप्रेम के बीच में
जो कुछ बचा रह जाता है
वही ठौर मानती हूँ!

एक अव्यक्त और अनकहा सम्वेदना सम्बन्ध
जिसे यह समर्थ संसार
एक अदद नाम तक नहीं दे पाया

क्योंकि प्रेम तो तुमने किया नहीं
और मैंने जो किया
उसे तो तुम कोई निश्चित नाम नहीं दे पाये

हँसी आती है कि जीवन में तुमसे कुछ मिला भी तो
उसका कोई नाम नहीं है।

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