‘Prem Jadoo Nahi Janta’, a poem by Chandra Phulaar
एक होता है प्रेम
एक होता है ‘जादू’
‘जादू’ बिल्कुल
प्रेम जैसा दिखता है
सलोना… मादक…
वह तुम्हें आश्वस्त करता है
कि तुम्हारे प्रेम में
वो पत्थर भी पिघला सकता है
चाँद-तारे तोड़ लाने का
वादा करता है
उसके मुख से अपने रूप की व्याख्या सुन
इतरा उठती हो तुम
उसके गर्म स्पर्श से तत्क्षण ही तुम निकल आती हो बाहर
तुम्हारे सारे दुःख से!
पर दुःख कहीं नहीं जाते
जादू से भी नहीं
क्योंकि जादू
नहीं जानना चाहता
तुम्हारी माँ की बीमारी को
तीन महीने से ज़्यादा हुआ…!
वह खीझ जाता है
जब तुम प्रेम पगी बातों को छोड़
उसे बताती हो
कि तुम्हारे पिताजी की नौकरी जाने के
ठीक बाद से ही
घर में कितना मातम पसरा है!
बड़ी बहन का ब्याह
जो घर बेचकर किया था
काहे टूटा!
जादू नहीं जानना चाहता
तुम्हारी इन बेकार की
बातों को।
नहीं पाँव रखता उस गहरी
दुःख की खाई में…
जिसमें तुम
आकण्ठ डूबी हो।
वो तो तुम्हारी देह में
डूबना चाहता है!
वो बस प्रेम सुनता है
प्रेम कहता है
और प्रेम करना चाहता है!
पर जान लो
वो जो प्रेम जैसा दिखता है
वो बस ‘जादू’ है…
और ‘जादू’ प्रेम नहीं जानता!
और सदा से उपेक्षित ‘प्रेम’…
उपेक्षित ही रह जाता है।
क्यूंकि प्रेम…
जादू नहीं जानता…!
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