सुना है
उत्कट प्रेम की अभिलाषा
किसी उफनती नदी सरीखी होती है,
जो
तोड़ सकती है,
मज़बूत से मज़बूत बाँध को भी।
बनकर परवाज़
उड़ जाता है ये परिंदा प्रेम का
और बिना पतवार के भी
तूफ़ान से निकल जाती है इसकी नैया।
प्रेमी, प्रेमास्पद की चाहना
सतही नहीं होती,
ये होती है,
समुद्र की गहराई सदृश
या फिर
उससे भी गहरी होती है
मन की तली।
पर सोचती हूँ आखिर,
प्रेम तुम हो क्या!
कभी देखा नहीं तुम्हें,
कभी ठीक से जाना भी नहीं तुम्हें।
या तुम इतने उत्कृष्ट भाव हो,
जो हृदय की
उच्चतम श्रेणी में
विद्यमान रहते हो
कि तुम्हें जान ही न पायी।
या जानने की
अभिलाषा भी सीमित रह गयी,
कुबुद्धि की वजह से,
क्योंकि तुम्हारी गहराई
को भाँपने या नापने का
कोई साधन ही नहीं हैं मेरे पास।
मेरी समझ का पैमाना भी
उतना गहरा नहीं
न ही मन की दृष्टि इतनी तीक्ष्ण है।
सोचती हूँ मैं कभी-कभी
कि तुम्हरा रंग क्या है!
शायद तुम श्वेत रंग के हो
तभी तो जब तुम स्थापित होते हो
हृदय में,
तब वो स्थान भी हो जाता है
देदीप्यमान, शांत,
उल्लास से परिपूर्ण।
या तो तुम रक्तिम रंग के हो
क्योंकि तुम्हारी उपस्थिति मात्र से
मुख मंडल रक्तिम आभा से
मंडित हो उठता है
प्रियवर की छवि आलोकित कर,
और वियोग में
द्रवित होकर ये हृदय
रंग जाता है रक्तिम रंग में ।
फिर लगता है शायद हो
तुम हो केसरिया रंग के,
तभी तो तुम्हारी रहने से
धन, दौलत, मन, बुद्धि
और हाड़-मास तक अपना,
त्यागने को प्रेरित होता है ये मन
और सर्वस्व न्यौछावर करने की लालसा
जग उठती है।
सच बताओ प्रेम
तुम क्या हो!
कभी तुम्हें जान न सकी
पर लगता है,
जब मैं बहुत छोटी थी
तब माता के स्तनों में
दूध उतरने का कारण
तुम ही थे,
और माँ की निश्छल स्मित
में घुले हुए थे
वो तुम ही थे न!
तभी तो माता को देखते ही
मेरा उर सुगंधित हो उठता था
किसी पुष्प की तरह।
या फिर तुम थे
पिता की चिंता, उनकी डाँट में।
जो बाहर से परिलक्षित था पत्थर,
अंदर था मोम सा कोमल हिय,
किंतु
कभी शिव के सदृश उनके
क्रोध में भी रहे सिक्त,
और उनकी परवाह में भी
अवश्य ही तुम थे।

लगता है,
तुम उन पुष्पों में समाहित थे,
जिन्हें परमात्मा को अर्पण करते समय,
निकल आये थी कुछ बूंदे अश्रु की
जो निकलकर आँखों से,
कपोल की सीमा को लांघते हुए
जा पहुँचे थी ग्रीवा प्रदेश तक।
या थे तुम उस अश्रु में ही
जो किसी के लिए की गई प्रार्थना में
निकल गए थे निःसंकोच, यकायक,
या तुम वह प्रार्थना ही थे,
जो ईश्वर के चरणों से होते हुए
विलीन हो गए थे जाकर
हृदय में उनके।
हाँ प्रेम
तुम वही थे।

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अनुपमा मिश्रा
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