‘Prem Ke Vanshaj’, Hindi Kavita by Manjula Bist

अब तलक
प्रेम को तमाम प्रेमिल कविताओं ने नहीं,
बल्कि प्रेम को उस एक कविता ने बचाया है
जो या तो कभी लिखी ही न जा सकी
और यदि कभी लिख भी दी गयी हो
तो उसमें परिपूर्णता महसूस न हो सकी।

प्रेम में गुनगुनाये हुए बेसुरे गीतों को सहेजा है
बालियों के उन झुण्डों ने
जिनमें कुछेक दाने हरे ही रह गये थे
और वे मौसम के पारायण पर
आगामी फसल की आद्रता सिद्ध हुए थे।

सृष्टि में हर पल उमगते प्रेम को
सबसे अधिक उम्मीद से
उन मधुमक्खियों ने देखा है
जिन्होंने छत्तों से मधु के रीतने के बाद भी
फूलों को चूमना नहीं छोड़ा है।

प्रेम की मौन अभिव्यक्ति
उन पिताओं के हिस्से में सबसे अधिक है
जिन्होंने गाहे-बगाहे व तीज-त्योहारों पर
अपने चोर-पॉकेट की पूँजी
सबसे पहले सन्तति व पत्नी पर ख़र्च की
अंत में स्वयं पर (अगर सम्भव हुआ तो)।

प्रेम के पूर्ण-योग्य वंशज वे सभी प्राण-शक्तियाँ हैं
जिन्होंने जब अपनी जगह छोड़ी थी.. हमेशा के लिए…
तब वहाँ के आभामण्डल में इतना वैराग्य भरा था
कि किसी अन्य को
उस जगह पर बग़ैर झाड़ू बुहारकर बैठने में
रत्ती भर भी हिचक नहीं हुई थी।

यह भी पढ़ें: मंजुला बिष्ट की कविता ‘स्त्री की व्यक्तिगत भाषा’

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मंजुला बिष्ट
बीए. बीएड. गृहणी, स्वतंत्र-लेखन कविता, कहानी व आलेख-लेखन में रुचि उदयपुर (राजस्थान) में निवासइनकी रचनाएँ हंस, अहा! जिंदगी, विश्वगाथा, पर्तों की पड़ताल, माही व स्वर्णवाणी पत्रिका, दैनिक-भास्कर, राजस्थान-पत्रिका, सुबह-सबेरे, प्रभात-ख़बर समाचार-पत्र व हस्ताक्षर, वेब-दुनिया वेब पत्रिका व हिंदीनामा पेज़, बिजूका ब्लॉग में भी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं।

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