कई साल हुए नागरी प्रचारिणी पत्रिका में किसी मराठी लेख के आधार पर एक हिन्दी लेख प्रकाशित हुआ। मुझे वह लेख बहुत अच्छा मालूम हुआ। मैंने उसका टूटा-फूटा अनुवाद उर्दू में करके ‘ज़माना’ में ‘हंसी’ के नाम से छपवा दिया। ‘ज़माना’ के सम्पादक को उसके अनुवाद होने की इत्तला भी दे दी। मेरा अभिप्राय यह कदापि नहीं था, मैं उस हिन्दी या मराठी लेख के यश का अपहरण कर लूँ। इस तरह नोच-खसोट करने से कीर्ति नहीं मिलती। कीर्ति बहुत ही दुर्लभ वस्तु है और मैं इतना बड़ा मंदबुद्धि नहीं हूँ कि इधर-उधर से तर्जुमे करके अपनी कीर्ति बढ़ाने का प्रयत्न करूँ। जिसमें मौलिक लिखने की शक्ति है, वह अनुवाद करता ही नहीं और न अनुवाद से यश कमाने की अभिलाषा ही होती है। मैंने अपने साहित्यिक जीवन के आरम्भ-काल में ज़रूर अंग्रेज़ी से उर्दू में बहुत कुछ अनुवाद किया है। इसका कारण यही है कि उस वक़्त तक मैं मौलिक रचना करने में असमर्थ था। वे सारे अनुवाद मिट गए, क्योंकि उनमें जीवित रहने की कोशिश न थी। ‘हंसी’ नामक लेख भी मैंने छिपाकर नहीं लिखा। छिपाने की ज़रूरत ही न थी। जिस महीने में मूल लेख हिन्दी में प्रकाशित हुआ, उसके शायद एक ही महीने बाद उसका अनुवाद उर्दू की सर्वोत्तम पत्रिका में हो गया। मैं इतना उस वक़्त भी जानता था कि ‘ज़माना’ का हिन्दी पाठकों में काफ़ी प्रचार है। इसलिए अगर उर्दू लेख में मूल का हवाला नहीं दिया गया तो वह Technical Omission कहा जा सकता है, अपहरण नहीं। लेख इतना सुंदर था कि मैं उस वक़्त उतने अच्छे लेख के लेखक बनने का दावा ही नहीं कर सकता था। विषय ख़ुद ही पुकार-पुकारकर कह रहा था कि मैं किसी दार्शनिक के मस्तिष्क से निकला हूँ। मैं दावे से कह सकता हूँ कि मुझे किसी ने भी उस लेख का लेखक नहीं समझा। सब ने अनुवाद समझा और कदाचित् यही कारण था जिससे मैंने हिन्दी लेख का हवाला नहीं दिया। इस वक़्त यह भी याद नहीं कि मैंने हवाला दिया था या नहीं, लेकिन मैं हवाला देने के कोई प्रमाण न रहने के कारण माने लेता हूँ कि मैंने जान-बूझकर हवाला नहीं दिया। इसलिए कि जो बात स्वयं प्रकट थी, उसके प्रकट करने की ज़रूरत न थी।
लेकिन हिन्दी में आजकल मुझ पर आलोचक महोदयों की विशेष कृपा है। ‘समालोचक’ के पिछले अंक में एक महाशय ने मेरे उसी ‘हंसी’ नामक लेख को हिन्दी मूल से मिलाकर यह सिद्ध किया है कि यह उसका अनुवाद है। अनुवाद तो है ही, बीच खेत अनुवाद है, मैं कब कहता हूँ नहीं। जिन महाशय ने इतने दिनों के बाद यह खोज की है, यदि लेख के प्रकाशित होते ही हवाला दे देने के लिए ‘ज़माना’ के सम्पादक को लिख भेजते तो हवाला मिल जाता और आज उन्हें मुझ पर आक्षेप करने की ज़हमत न उठानी पड़ती।
उक्त लेख में मेरे डाके के बारे में और मेरी रचनाओं की तत्त्वहीनता के विषय में भी बहुत कुछ लिखा गया है। उसका जवाब देने की ज़रूरत नहीं, हाँ, इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ‘साहित्य-पाठक’ के साहित्य विद्यालय के वार्षिकोत्सव पर मेरे मुँह से जिन शब्दों के निकलने की चर्चा की है, वे शब्द मेरे मुँह से कभी नहीं निकले और न निकल सकते हैं। यह सलाह और साहित्यिक मण्डली में बैठकर मैंने दी—यह कल्पनातीत है और लेखक महोदय इतना घोर कलंक मेरे सिर पर थोप सकते हैं, इसका मुझे आश्चर्य है। लेख का भाव, भाषा और शैली से विदित होता है कि किसी स्कूली लड़के ने लिखा है, जिसने मेरी कोई रचना पढ़ी ही नहीं। उनसे मेरा आग्रह है कि कृपया एक बार धैर्य रखकर ‘रंगभूमि’ पढ़ जाइए। जिसने ‘वैनिटी फ़ेयर’ और ‘रंगभूमि’ दोनों की सैर की है, वह कभी ऐसी बेतुकी बातें लिख ही नहीं सकता। ‘वैनिटी फ़ेयर’ आसमान पर हो, ‘रंगभूमि’ ज़मीन पर, पर है वह ‘रंगभूमि’! रहा ‘प्रेमाश्रम’ पर ‘रिजरेक्शन’ का प्रभाव, इसके विषय में यही कहना है कि अभी मैंने ‘रिजरेक्शन’ नहीं पढ़ा है और अगर बिना उसके पढ़े ही ‘प्रेमाश्रम’ में ‘रिजरेक्शन’ के भाव आ गए हैं तो यह मेरे लिए गौरव की बात है।
अभी ज़िन्दा रहा तो कुछ लिखूँगा और मेरे भाषा और विचारों में उच्चकोटि के लेखकों जैसी बहुत-सी बातें आवेंगी। आप जो अच्छी पुस्तक देखेंगे, वह मेरी किसी पुस्तक से मिलती-जुलती जान पड़ेगी, कारण यही है कि मैं अपने प्लॉट जीवन से लेता हूँ, पुस्तकों से नहीं और जीवन सारे संसार में एक है। समकालीनता में भी सादृश्यता होती है, इससे कोई लेखक अपने को नहीं बचा सकता, अगर वह केवल जासूसी और तिलस्मी बातें नहीं लिखता। जो राजनैतिक भाव आज रूस में दिलों को विकल कर रहे हैं, वही भाव आज भारत के हृदय में स्पन्दन कर रहे हैं। कैसे सम्भव है कि हृदय रखने वाले दो लेखकों के विचार और भाव आपस में न मिलें।
‘समालोचक’ के भाग-दो संख्या-तीन में ‘गुलाब’ महाशय ने ‘रंगभूमि’ की चर्चा करते हुए लिखा है कि उस पर ‘वैनिटी फ़ेयर’ का कुछ प्रभाव है। हो सकता है। लेकिन मैंने ‘वैनिटी फ़ेयर’ सन् 1903 में पढ़ा था और ‘रंगभूमि’ सन् 1924 में लिखी, इससे ‘वैनिटी फ़ेयर’ के भावों का इतने दिनों मन में संचित रहना मुश्किल है, विशेष कर मेरे लिए क्योंकि मेरी मेमोरी अच्छी नहीं। और सभी बातों में मैं उनसे सहमत हूँ। जो चीज़ मौलिक है, वह मौलिक रहेगी। उसकी मौलिकता को कोई मिटा नहीं सकता। जिस रचना पर वर्षों आँखें फोड़ी गई हैं और कलेजे का ख़ून बहाया गया है, उसे आज कोई रसिकता-हीन आलोचक मिटा नहीं सकता।
मुझे ख़ुद उपन्यास-सम्राट कहलाना पसन्द नहीं। मैं क़सम खा सकता हूँ कि मैंने इस उपाधि की कभी अभिलाषा नहीं की। यदि ‘साहित्य-पाठक’ महोदय किसी तरह मुझे इस विपत्ति से बचा दें, तो उनका एहसान मानूँगा।
‘समालोचक’ के इसी अंक में बाबू ब्रजरत्न दास जी ने मेरी ‘आभूषण’ नामक कहानी के प्लॉट का टामस हार्डी का एक गल्प से सादृश्य दिखाया है। हाँ, सादृश्य अवश्य है। टामस हार्डी को जो बात सूझ सकती है, वह किसी दूसरे लेखक को क्या नहीं सूझ सकती? कहानी के प्लॉट में कोई ऐसी विलक्षणता नहीं है जो हिन्दी के लेखक के लिए असूझ हो। हार्डी भी आदमी ही था, कोई देवता न था। और फिर ऐसी घटनाएँ जब हमें नित्य ही जीवन में मिलती हैं तो हमें क्या कुत्ते ने काटा है जो टामस हार्डी से उधार लेने जाते। हाँ, जिन लोगों को आँखों के सामने की वस्तु नहीं दिखायी पड़ती हो, वे ऐसी शंका कर सकते हैं तो करें।
यहाँ मुझे एक भ्रम-निवारण करना ज़रूरी मालूम होता है। जब हम अपने किसी सहवर्गी को अपने से आगे बढ़ते देखते हैं तो सम्भवतः मन में एक कुरेदन-सी होती है। उसे किसी तरह नीचा दिखाने की इच्छा होती है। शायद कुछ लोग समझते हों कि यह कल का लौंडा हमसे बाज़ी मारे लिए जाता है और हम पीछे रहे जाते हैं, इसे किसी तरह रगेदना चाहिए। उन महाशयों से मेरा निवेदन है कि यह अभागा कल का लौंडा नहीं, पुराना खुर्राट है। तीन साल और हों तो पूरे पचास का हो जाए। उसे क़लम घिसते हुए तीस वर्ष हो गए। इतना बतला देने के बाद मुझे आशा है कि आगे मेरी रचनाओं की आलोचना करते समय ज़रा मेरी अवस्था और उसके योग्य गम्भीरता का ध्यान रखा जाएगा।
पुनिश्चः
हाँ, ‘हंसी’ का अनुवाद प्रेमचंद ने नहीं शायद ‘नवाबराय’ ने किया था, यद्यपि यह दोनों व्यक्ति एक जान दो नाम हैं।
[लेख। ‘समालोचक’ शरद् संवत् 1983 ‘नवबर, 1926’ में प्रकाशित। ‘विविध-प्रसंग’ भाग-3 में संकलित।
प्रेमचंद का लेख 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति'