किसी भी साहित्य की आलोचना करते समय लेखन के समकालीन होने की जितनी माँग की जाती है, उतना ही इस बात पर भी ध्यान दिया जाता है कि लेखक कहीं समकालीन होने के चक्कर में ख़बरिया शैली में फँसकर तो नहीं रह गया! ऐसा कितनी ही बार कहते सुना गया है कि किसी घटना पर अगर तुरन्त साहित्य की किसी विधा में लिख दिया जाए तो वह अधपका साहित्य होगा, उस घटना के सारे पक्षों-विपक्षों, प्रभावों का समावेश करने में किसी सक्षम लेखक को कुछ सालों का समय को ख़ुद को देना ही चाहिए। वर्तमान समय में अगर हम बात करें तो पिछले लगभग तीन सालों से पूरे विश्व में जो सबसे समकालीन मुद्दा है, वह है कोरोना और अभी कोरोना के जाने की कोई सूरत निकली दिखायी भी नहीं देती कि हमें कोरोना और उससे उपजे अनुभवों से सम्बन्धित साहित्य की किताबें पढ़ने को मिल रही हैं। इन किताबों के मूल्याँकन में भी हमें यही देखना होगा कि सबसे पहले इस विषय को जीत लेने के लालच में ही तो लेखक ने कहीं किताब न लिख डाली हो। हालाँकि, देवेश की किताब ‘पुद्दन-कथा’ के साथ ऐसा होता नहीं दिखायी देता, जिसमें कोरोना काल में कोरोना को लेकर भारतीय गाँवों में क्या भगदड़ मची, क्या कौतुहल रहा, उसका सारा लेखा-जोखा मिलता है।

हास्य-शैली में लिखी गई यह छोटी-सी किताब शुरू से अंत तक पाठक को हँसाती चलती है और दिखाती है कि किस तरह एक तरफ़ जानकारी न होने की वजह से कोरोना को गाँवों में हल्के में लिया गया, यहाँ तक कि इसे बीमारी भी मानने में उन्हें समय लगा और दूसरी तरफ़ इस ख़तरनाक बीमारी को अपने लोक-गीतों तक में कितनी जल्दी शामिल भी कर लिया गया। यह आयरनी पाठकों के लिए बड़ी दिलचस्प साबित होती है।

किताब का प्लॉट ही बड़ा रोचक है। पुद्दन और मीना पति-पत्नी हैं। मीना की बहन सुमन की शादी होने वाली है, एक ही हफ़्ता बाक़ी है और इसी बीच पता चलता है कि मीना को कोरोना हो गया है। लेकिन बहन की शादी में तो मीना को शामिल होना ही है, बस यहीं से शुरू होती है पुद्दन कथा। शादी में जाने के लिए क्या-क्या तिकड़म भिड़ाए गए, उन तिकड़मों के बावजूद शादी का कितना आनंद पुद्दन और मीना ले पाए और इस सारे झमेले में कोरोना ने मीना, उसके पीहर और उसके ससुराल को किस तरह प्रभावित किया, यह एक बड़ी ही रोमांचक कहानी के ज़रिये पाठकों के सामने आता है।

‘गाँव-गिराँव’ की कहानी है, सो वहाँ के मज़ाक़-चुहल भी किताब में भरपूर मिलते हैं। जैसे—

उसी समय पुद्दन घर आए तो मीना ने बड़ी अदा से उनकी तरफ़ देखते हुए पूछा- “का हो दिलवर जानी! आजकल बड़ा दूरे-दूरे रहत बाटा हमसे?”

पुद्दन ये सुनते ही भड़क गए, “अरे! तोहके करोना पकड़ले बा त हम का करीं, कइसे आईं नजदीक?”

मीना ने और छेड़ा, “अब तूं जब ना पकड़बा त केहू ना केहू त पकड़बै करी।”

या

बरामदे में लेटी अम्मा से जाते-जाते सरिता ने कहा, “अरे अम्मा मास्क लगाय के रहा नहीं त करोनवा पकड़ लेई।”

अम्मा ने पूछा, “ई का होला बेटा?”

राधा ने बात सरल की, “चाची! चेहरा ढक के रहल करा।”

अम्मा ने हँसते हुए कहा, “जा बहिनी। करोनवा हमार जेठ थोड़ी ना लागैला कि परदा करीं वोकरे सामने।”

इस किताब की एक ख़ास बात यह भी है कि हिन्दी की किताब होने के बावजूद इसमें पात्रों के संवाद भोजपुरी भाषा में हैं लेकिन वे कहीं भी भोजपुरी न जानने वाले एक हिन्दी पाठक के रसास्वादन में बाधक नहीं बनते, बल्कि कहानी को एक ऑथेंटिक फ़्लेवर देते ही नज़र आते हैं।

इस हँसी-मज़ाक़ के साथ किताब के एक हिस्से में हमें उन लोगों की व्यथा और संघर्षों का भी विवरण मिलता है जो इन्हीं गाँवों-देहातों से निकलकर रोज़गार की खोज में बड़े शहरों में जाते हैं और जिन्हें पहले कोरोना लॉकडाउन के समय पैदल ही अपने-अपने घरों का रास्ता तय करना पड़ा।

ओवरऑल, किताब तीनेक घण्टों की एक ही बैठक में पढ़ जाने लायक़ है, एक बार शुरू किया तो बीच में छोड़ने का मन नहीं करेगा।

सुजाता की किताब 'एक बटा दो' पर एक टिप्पणी

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