पहले खेत बिके
फिर घर, फिर ज़ेवर
फिर बर्तन
और वो सब किया जो ग़रीब और अभागे
तब से करते आ रहे हैं जब से यह दुनिया बनी
पत्नी ने जूठा धोया
बेटों ने दुकानों पर ख़रीदारों का हुक्म बजाया
बेटियाँ रात में देर से लौटीं
और पैठान मुझे छेंकते रहे सड़कों पर
इस तरह एक-एक कर घर उजड़े, गाँव उजड़े
और यह नगर महानगर बना
पर कोई नहीं बोलता ऐसा हुआ क्यों
अब कोई नहीं पूछता यह दुनिया ऐसी क्यों है
बेबस कंगालों और बर्बर अमीरों में बँटी हुई
नहीं मैं हारा नहीं हूँ
मैं भी वो सब करूँगा
हम सब वो सब करेंगे जो हम जैसे लोग तब से
करते आ रहे हैं जब से यह दुनिया बनी
जो अभी-अभी बोलिविया कोलम्बिया ने किया
जो अभी-अभी नेपाल के बाँकुड़ों ने किया
और मैं बार-बार पूछता रहूँगा वही एक पुराना सवाल—
यह दुनिया ऐसी क्यों है?
अरुण कमल की कविता 'सबसे ज़रूरी सवाल'