हृदय ही होती हैं
वृक्षों की पत्तियाँ,
पत्तियों में भी आता है ज्वार भाटा;

सबके पुरखों की मिट्टी बन जाती है पेड़
उनके चेहरे की दरारें छाल बनती हैं
पत्तियों पर पसर जाती हैं उनकी सम्वेदनाएँ,

पानी हमारे पुरखों तक जाने वाला डाकिया है;

पुरखों के बहे आँसू जब सूखते हैं
बन जाते हैं
दीवार पर चिपका सीला नमक,

कुछ पीठें ताउम्र बनी रहती हैं
नमकीन सीली दीवार,

उनके पुरखे कभी पेड़ नहीं बन पाते हैं
ना ही बात कर पाते हैं डाकिये से,

कुछ पुरखों को पानी छूना मना था।

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