एक शाम मैं बहुत दुखी था, उस रात मैंने एक सपना देखा था… मैं दुखी हूँ और सितारों के बीच कहीं भटक रहा हूँ। मैं बहुत ज्यादा दुखी हूँ। अचानक से किसी के पल्लू का सिरा हाथ लग गया मानो किसी ने मेरे दुख से मुझे उबारने के लिए अपना हाथ बढ़ाया हो। एक उम्मीद पाले पल्लू के सहारे मैं एक गहरे अंधेरे वाली एक गुफानुमा जगह पहुँच गया। वहाँ एक लड़की है, मैंने देखा, उस अंधेरे में वो एक उदास रोशनी में चमक रही है। उसके सिर की जगह काले घने बादल का एक टुकड़ा है और बादल का टुकड़ा बरस रहा है, जिससे लड़की का पूरा धड़ भीग रहा है।

मैंने पूछा, “तुम कौन हो? इस वीराने में क्या कर रही हो?”

जवाब एक महीन, खूबसूरत लेकिन रुआँसी आवाज में बादल में से कहीं से आया, “मैं दुख हूँ…”

“समझा नहीं, तुम बादल हो या लड़की?” मैंने उत्सुकता जाहिर की।

“मैं दुख हूँ…” उसने फिर अपनी बात दुहरायी।

“अच्छा, समझ गया… तुम कहना चाह रही हो, ये बारिश नहीं तुम्हारे आँसू हैं, लेकिन तुम्हारा चेहरा कहाँ है?”

“मेरा चेहरा वही देख सकता है जो मुझे इस दुख से आजाद कराएगा।” उस टुकड़े से अब धीमी बारिश होने लगी।

मैंने खुशी से कहा, “बस इतनी सी बात, अभी लो…”

तो मैंने उसको चुटकुले सुनाये। मेरे चुटकुले बहुत मजाकिया होते हैं पर किसी को समझ ही नहीं आते, उसे भी नहीं आये। थोड़ी देर बाद मुझे खुद से कोफ्त हुई कि मैं कहीं भी सफल नहीं हो सकता। मैं रुआँसा हो गया और उसे अपना दुख सुना बैठा। वहीं घुटनों को अपने में समेट कर बैठ के रोने लगा। जब मैंने उस लड़की की तरफ देखा तो वो उस पेन्टिंग वाली लड़की में बदल गयी; मोनालिसा… चेहरे पर दुख की निरीह मुस्कान लिये। फिर अचानक वो गायब हो गयी और मुझे सुफेद उजालों ने घेर लिया। जब मैं उठा तो मेरे शरीर में उठ रहे बायें हिस्से का दर्द कहीं नहीं था।

०००

बीती रात का एक सपना सुनाता हूँ… एक ऐसी दुनिया थी जहाँ या तो लोग लड़ते थे या इंतज़ार करते थे। प्यार कहीं नहीं था, चारों तरफ लड़ाईयाँ लड़ी जा रही थीं। दुनिया का हर शख्स मिलिट्री यूनिफॉर्म पहने हुए था। लोग तलवार, भाले और तीर-कमान लिए लड़ रहे थे, आज के समय की होकर भी पुराने जमाने की कोई जंग लग रही थी। उन लड़ाकों की एक टोली का मैं भी हिस्सा था, मुझे भी जंग के लिए डिप्लॉय किया जा रहा था।

कहीं एक अनजान जगह पर एक झील के किनारे मैं रुक गया जहाँ एक साधारण सी, झील किनारे झील बनी हुई लड़की किसी का इंतज़ार कर रही थी। नहीं, मेरा किसी को भी इंतज़ार नहीं है। एक लड़की थी कभी, जो यूँहीं मेरा इंतज़ार करती थी। एक दिन ऐसे ही भीड़ भरे एक सपने में मैंने उसे खो दिया, आजतक उसका इंतजार कर रहा हूँ।

इंतज़ार की निरर्थकता की कचोट को मैं जानता हूँ, दिल में सुईयाँ चुभोने जितनी पीड़ा होती है। दिन के बीतते पहर के साथ सूरज शरीर में समाता जाता है, इस ताप के बदले मौत माँगता है इंसान। मैं लड़की के पास चला आया, उसके इंतज़ार को सार्थक बनाने कि चलो, कोई तो आया। उसे ये न लगे कि बेवजह इंतज़ार कर रही थी।

मैं जाके उसके बगल में खामोशी से बैठ गया। उसका चेहरा लगातार बदल रहा था मानो किसी ने सैकड़ों तस्वीरों का स्लाइड शो शुरू कर दिया हो। उनमें से एक चेहरे को मैं जानता था, देखा था शायद कहीं। मैं चुपचाप बैठा लड़की के कुछ बोलने का इंतज़ार करता रहा। फिर जैसे ही लड़की का चेहरा किसी एक चेहरे पर ठहरने वाला था और वो मुझसे कुछ कहने को हुई, जंग शुरू हो गयी। मुझे वहाँ से चला जाना पड़ा।

कुछ समय बाद वापस लौटा, तो वो लड़की झील बनी अभी भी वहीं थी, उसका इंतजार ख़त्म नहीं हुआ था। फिर उन्हीं बातों का दोहराव होता है; लड़की जानी-पहचानी जान पड़ती है, उसका चेहरा तेजी से लगातार बदलता जाता है और जैसे ही लड़की बोलने को होती है और चेहरा थमने को होता है, मुझे वापस जंग के लिए बुलावा आ पहुँचता है और यही सब एक-दो बार नहीं, अनगिनत बार घटित होता है।

लेकिन इस बार जब मैं उसके पास पहुँचा तो लड़की का चेहरा स्थिर मगर धुँधला सा जान पड़ा। मैं उसे पहचानने में लग गया। मैंने उसे पहचान लिया, ये वही लड़की थी जिसे मैंने बीते दिनों किसी सपने में खो दिया था। अब मैं उसको बताना चाहता था, “जिसका इंतज़ार तुम्हें है, वो मैं ही हूँ। इधर देखो तो जरा।” तभी जंग का बिगुल फिर से बज उठा, अब मुझे जाना था। सरकारें जिनकी ओर से हम लड़ रहे थे, उन्होंने इस जंग का एकमात्र नियम तय कर रखा था कि भगौड़ों का दिल निकाल लिया जाएगा। मेरी तरह किसी न किसी का इंतज़ार करने वाले सभी डरे हुए थे कि दिल के साथ उनकी यादें भी चली जायेंगी। जबरन जंग की चक्की में पिसे जा रहे थे सभी ताकि इंतज़ार सलामत रहें।

मैं उठ के जाने को हुआ कि उसने मुझे पुकारा और झील नदी बन बहने लगी…

“कहाँ जा रहे हो? मैं तुम्हारा कब से इंतज़ार कर रही हूँ?.. शायद सदियों से। तुम्हें मेरी परवाह पहले भी नहीं थी, अब भी नहीं है।”

“वहाँ लड़ाईयाँ लड़ी जा रही हैं, मुझे जाना होगा।” एक कदम जंग की तरफ बढ़ाते हुए मैंने कहा।

“बैठो यहाँ, अगर जंग ख़त्म करनी है तो मत जाओ। ये ज़रूरी नहीं कि किसी के हारने पर ही जंग ख़त्म हो। कोई लड़ने न जाये तो जंग वैसे भी ख़त्म हो जाएगी।” उसने उसी मासूमियत से कहा जिस मासूमियत से मेरे बाल सहलाती थी।

मैं भाला फेंक वापस उसके पास आकर बैठ गया और जंग ख़त्म हो गयी। उसकी बाँहों में असल बात समझ आयी, सरकारों को तो सिर्फ नफरत और हिंसा समझ में आती है। प्यार जंग पनपने नहीं देता इसीलिए दिल निकाल लेने का नियम बनाया गया होगा।

वो मेरे सिर को गोद में रखके बालों को सहलाने लगी। नहीं, सहलाती नहीं… पहले बिखेरती, फिर करीने से संवारती।

०००

ठीक-ठीक नहीं कह सकता, सपना देख रहा था कि सोच रहा था। सूरज की पहली किरण के साथ नींद टूट गयी थी, मैं देर तक बिस्तर पर अलसियाता पड़ा रहा और कुछ सोचने लगा। कुछ और ही सोच रहा था मगर अचानक उस लड़की को याद करने लगा जो मुझसे कभी प्यार करती थी और धीरे-धीरे उसका ख्याल ख़्वाब में तब्दील हो गया लगता है।

हमारे शुरुआती दिनों की तरह वो मुझसे मिलने आयी थी। मेरे हिसाब से सर्दियाँ चल रही थी इसलिए मैं स्वेटर पहने हुए था। वो आयी और मुझे देख हँसने लगी। धानी बैकग्राउंड पे नीली कढ़ाई वाली सूट पहने हुए थी (मैंने पूरी एक डायरी उसके कपड़ों के बारे में लिख रखी है जो वो मुझसे मिलते हुए पहने होती थी)। सूरज भी अपने तेज के साथ आया गया था जो मुझे देख के बादलों में छिपा बैठा था। उसके हँसने का कारण मेरा स्वेटर पहने हुए होना था। मैंने उससे कहा― अब तुम अपने साथ बसंत लेके चलती हो तो कोई क्या कर सकता है। वो हँसे जा रही थी और स्वेटर में से उधड़े एक ऊन से लगातार खेल रही थी।

उसकी इस हरकत से नाराज, मैं जाने को हुआ, उसने मुझे रोकना चाहा पर उसके हाथ में ऊन का उधड़ा छोर लग गया, मुझे रोकने की कोशिश में स्वेटर उधड़ने लगा और इसके लिए मुझे गोल-गोल चक्कर काटने की जरूरत भी नहीं पड़ी। मैं बढ़ता चला जा रहा था। मैंने खुद को अपना हर रास्ता बदलते पाया। अचानक मैंने अपने पीछे खिंचाव महसूस किया मानो कोई मुझे कहीं खींचे लिये जा रहा हो, नियंत्रित कर रहा हो जैसे।

मुझे मेरे मन का रास्ता अपनी ओर खींचता पर मैं उस रास्ते पर जा नहीं पाता। मैं ऊन के डोर से उससे बँधा था जिन्हें मैं अपने हाथों से तोड़ने की कोशिश करता पर तोड़ नहीं पाता और दाँतों से काटने पर अजीब सी सिरहन होती। इसलिए मैं वहाँ-वहाँ जाता रहा, जहाँ वो ले जाना चाहती थी तबतक जबतक मैं एक ब्लैकहोल में नहीं फँस गया और इस रास्ते पर जाने का आकर्षण इतना ज्यादा था कि हमारे रिश्ते को थामी डोर टूट गयी। उसे लगा मैं किसी भँवर में फँस गया हूँ जहाँ से कभी निकल नहीं पाऊँगा। लेकिन मुझे इस भँवर में भी आजादी महसूस हुई, भला मैं यहाँ से निकलना क्यूँ चाहूँ। मैं उड़ रहा था, तैर रहा था, अपने मन की कर रहा था, कितने समय से मैं अकेला रहना चाहता था।

अचानक से मेरा दम घुटने लगा, मैं साँस नहीं ले पा रहा था। मुझे बस लगता था, मैं अकेला रहना चाहता हूँ। दरअसल, मुझे अकेलेपन से डर लगता है। मुझे हिचकी आनी शुरू हो गयी, जो लगातार बढ़ती जा रही थी, छटपटाना-तिलमिलाना-तड़पना, उस एक पल में पीड़ा की हर अनुभूति कर ली थी मैंने। खुद को डूबता हुआ देख रहा था, मैंने खुद को समुद्र की असीम गहराई में कहीं भटकता पाया। मुझे तैरना नहीं आता था, मैं डूबता जा रहा था। तभी सतह पर पड़ रही धूप में उसका चेहरा चमका, उसके चेहरे को आखिरी बार छू लेने की ख्वाहिश जगी भीतर कहीं।

अब मैं सतह पर था। मैंने उसे किनारे पर देखा, वो मुझे देख मुस्कुरा रही थी। मैंने लगभग चीखकर उससे कहा― मैं मर रहा हूँ… पर मैं मरना नहीं, तुमसे प्यार करना चाहता हूँ, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ। उसके चेहरे की मुस्कुराहट धीरे-धीरे धूमिल होती गयी, मुझे खो देने की शिकन होंठों से शुरू होकर पूरे चेहरे पर छा गयी।

मुझे बचाने के लिए उसने हमारी मुलाकात के शुरुआत में ही जिस ऊन के धागे से वो खेल रही थी, मेरी माँ की तरह उसने उस धागे को स्वेटर में ही कहीं बाँध दिया ताकि एक धागे के उधड़ने से पूरी स्वेटर न उधड़ जाए। मैंने उसके चेहरे की ओर देखा, आँखों के कोनों में फँसा एक कतरा आँसू था और अभी भी मुझे खो देने की शिकन बरकरार थी।

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विक्रांत मिश्र
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से हैं। साहित्य व सिनेमा में गहरी रुचि रखते हैं। किताबें पढ़ना सबसे पसंदीदा कार्य है, सब तरह की किताबें। फिलहाल दिल्ली में रहते हैं, कुछ बड़ा करने की जुगत में दिन काट रहे हैं।

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