यह कविता यहाँ सुनें:
जब मेरे होठों पर
तुम्हारे होंठों की परछाइयाँ झुक आती हैं
और मेरी उँगलियाँ
तुम्हारी उँगलियों की धूप में तपने लगती हैं
तब सिर्फ़ आँखें हैं
जो प्रतीक्षा करती हैं मेरे लौटने की
उन दिनों में, जब मैं नहीं जानता था
कि दो हथेलियों के बीच एक कुसुम होता है
—सूर्यकुसुम!
जब अँधेरे दरवाज़े पर खड़े होकर
तुम एक गीत अपने कंधों से
मेरी ओर उड़ा देती हो
और मैं एक पेड़ की तरह खड़ा रहता हूँ
तब सिर्फ़ आँखें हैं
जो प्रतीक्षा करती हैं मेरे लौटने की
उन दिनों में, जब मैं नहीं जानता था
कि दो चेहरों के बीच एक नदी होती है
—सूर्यनदी!
जब तुम मेरी बाँहों में
साँझ-रंग-सी डूब जाती हो
और मैं जलबिम्बों-सा उभर आता हूँ
तब सिर्फ़ आँखें हैं
जो प्रतीक्षा करती हैं मेरे लौटने की
उन दिनों में, जब मैं नहीं जानता था
कि दो देहों के बीच एक आकाश होता है
—सूर्यआकाश!
अशोक वाजपेयी की कविता 'अकेले क्यों?'