सुबह से माँ के घुटनों का दर्द तेज़ था। पिछली रात देसी बाम, गरम पानी और तेल का कोई ख़ास असर नहीं हुआ। इधर वक़्त हुआ जा रहा था कि जल्द अज़ जल्द जगहे-मुक़र्रर पर पहुँचा जा सके। गोदल ने अपनी माँ को उठाकर किसी तरह रिक्शे पर बिठाया। माँ की आँखों से गाठिया के दर्द के आँसू बहने लगे लेकिन चेहरे पर गहरी शिकनें नहीं उभरीं, जैसे कि इन आँसुओं से उनका कोई वास्ता नहीं, जैसे कि दर्द का पास रखने के लिए रस्मन आँसू बह रहे हों। रिक्शेवाले को हिदायत थी कि रिक्शा तेज़ न चलाए। इस वक़्त गोदल अपनी माँ के साथ रिक्शे पर नहीं बैठा करता। अनपढ़ होने के बावजूद उसे पहचान छिपाने के फ़ायदे पता थे। बस इसीलिए वो कुछ क़दम के फ़ासले पर रिक्शे के पीछे-पीछे चलता रहता। क़रीब पन्द्रह-बीस मिनट के बाद गंगा का नज़ारा होना शुरू होता। छोटे-छोटे नाव और स्टीमर, गंगा की छाती पर तैरते फिरते नज़र आते। दूसरे किनारे पर कुछ एक घर, कुछ बिल्डिंग और पुराने मन्दिर नज़र आते। यहीं आस-पास वो घाट है जहाँ पर तेहरवीं की पूजा होती है। गोदल अपनी माँ को ले जाकर उसी घाट पर बैठा देता। कुछ देर टहलक़दमी की और फिर ग़ायब।
माँ अपनी झोली से चुड़ा-गुड़ निकालकर बग़ैर दाँत वाले मुँह से चबाती रहती और लोगों को घाट पर पूजा के लिए जाते देखती। उनके लौटते वक़्त ऐसी कराह भरी आवाज़ें निकालती कि लोग तरस खाकर कुछ न कुछ उसकी झोली में डालकर ही जाते। जिसका कोई क़रीबी मरा होता, वो कुछ ज़ियादा ही दान कर देता। बुढ़िया मरने वाले की आत्मा की शान्ति की दुआ देती, जिसे लोग अनसुना करने की कोशिश में आगे निकल जाते। यह बुढ़िया जो कौड़ी-भर की नहीं, उसकी क्या औक़ात कि आत्मा की शान्ति की दुआ करे! इसे ख़ुद आख़िरी आग नसीब होगी कि नहीं, भगवान जाने!
गोदल दिन-भर दक्षिणेश्वर की गलियों में घूमते-भटकते गुज़ारता और शाम होते ही अपनी माँ को लेने वापिस चला आता। इस वक़्त यह घाट अक्सर ख़ाली ही रहता है। वह अपनी माँ को लेकर वापिस एक बेहद पुराने कमरे में आता, जिसके प्लास्टर तक झड़ चुके हैं और ईंटें नज़र आती रहती हैं। रेडियो में पुराने गाने बजते और वह खाना तैयार करता। दोनों ख़ामोश रहते, ऐसे कि जैसे जन्म-जन्मान्तर के अजनबी हों। माँ-बेटे का रिश्ता ज़रूरत की शक्ल ले चुका है, जिसमें माँ का किरदार कमाने का है और बेटे का खाना पकाने का। दोनों ख़ामोशी से खाते और फिर गोदल अपनी माँ के आँचल से कुछ पैसे निकालकर एक देसी शराब की बोतल लाता, पीता और कुछ बड़बड़ाते गहरी नींद सो जाता। आधी रात को आवारा कुत्तों की भौंक और बुढ़िया के दर्द की कराह मिलकर भी गोदल की नींद में कोई ख़लल नहीं डाल पाते।
इस रोज़मर्रा में तब तक कोई तब्दीली नहीं आयी, जब तक कि एक शाम गोदल उसे घर लाने घाट पर पहुँचा और बुढ़िया सूखी लकड़ी-सी सख़्त मालूम हुई। थैली से पैसे निकाले तो बस उतने ही मिले, जितने रोज़ के थे। इन पैसों में क्या क्रिया-करम होगा! कुछ देर में घाट पर सन्नाटा छा गया| गोदल ने मौक़ा देखकर बुढ़िया को उसी गंगा में डाल दिया। उसे लगा कि उसे अपनी पहचान छिपाने का भरपूर फ़ायदा हुआ है।
माँ के बाद अब गोदल के पास कमाई का कोई ज़रिया न बचा। उसे पता था कि तीस-बत्तीस साल के जवान मर्द को कोई तब भी भीख नहीं देगा जब कि तैंतीस करोड़ देवताओं के नाम एक साँस में सुना दे। मिले भी तो शायद इतना नहीं कि दो वक़्त की ख़ुराक और एक बोतल दारू का इन्तिज़ाम हो सके। …फिर भी, उम्मीद बड़ी चीज़ है।उसने अपनी माँ की जगह लेने की कोशिश की, पर कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। पिछले सात दिनों में शायद दो दिन ही वो अपनी ख़ुराक जितना खाना कमा सका और बस एक बार देसी दारू नसीब हुई।
उसी रात वो उठा और नशे की धुन में घर से निकल गया। एक फटी लुंगी और एक कुरता। रात-भर मशीन की तरह चलता रहा, बड़बड़ाता रहा और अपनी माँ को गालियाँ बकता रहा। फिर कहाँ बैठा, कहाँ नींद आयी, कोई होश न था। सुबह आँख खुली तो पेट में अश्वमेघ चल रहा था और आहूति के लिए कुछ भी न था। आस-पास से ट्रेन गुज़र रही थी। नज़दीक ही शायद कोई स्टेशन है। धीरे-धीरे वहाँ तक पहुँचा और एक लोकल में चढ़कर आहूति माँगनी शुरू की। कुछ मिला तो एक-आध दस के नोट और बहुत-सी गालियाँ। दूसरी ट्रेन पर चढ़कर उसने एक-आध बंगला लोकगीत जो अक्सर दुर्गा पूजा के वक़्त बजा करता है, गाना शुरू किया। कहीं गूँगा बनकर सीना पीटना शुरू किया, कहीं माँ के क्रिया-करम के नाम पर पैसे उठाने लगा और कहीं अंधा बाप बनकर अपने बेटी की शादी कराने की रूदाद सुनायी।
धीरे-धीरे बाक़ी भिखारियों को देख-देखकर उसे भीख माँगने के कुछ और भी क़ायदे-क़ानून आ गए। किस रूट में गाना है और किस स्टेशन पर माँ की मौत का सोग मनाना है, इन सब तकनीक से वह अच्छी तरह वाक़िफ़ हो गया। उसकी ज़िन्दगी फिर से रौ पकड़ने लगी। बदन पर खान-पान की रौनक नज़र आने लगी। इस वक़्त वह ढीले कपड़े पहना करता।
इसी बीच उसके गाने वाले रूट में काली बाउल का आना शुरू हुआ। दुबला-पतला शख़्स, जिसका आधा बदन गेरुए से ढका और आधा आले-सफ़ेद बालों से। लम्बी दाढ़ी मुसलामानों-सी लगती थी। होंठों पर अक्सर ग़ैबी नग़मे की तरह एक मद्धम मुस्कान बनी रहती। वह सचमुच का बाउल था। अक्सर लालन फ़क़ीर और चैतन्य के मशहूर और लामशहूर गीत अपने एकतारा की धुन में गाता और लोग उसे बिन माँगे ही कुछ न कुछ दे देते थे। इस बाउल के भीख माँगने में भी एक गौरव था, जो आम तौर पर किसी अंधे या लंगड़े भिखारियों में नहीं होता है।
गोदल पहली बार गौरव जैसी किसी चीज़ से वाक़िफ़ हुआ। उसे लगा कि भीख माँगने की सबसे अच्छी कला यही है। पर उसे दो गीत ही आते हैं, एक बहुत तेज़ भूख लगने पर कराह के सुर में निकलता और दूसरा पेट भरने के बाद डकार के रूप में।
रोज़ आना-जाना करने वालों में काली बाउल का नाम चर्चे में हुआ करता। लोग उसे ही सुनना पसन्द करते। कभी-कभी उसके साथ गाने-बजाने में तल्लीन हो जाते। इसका गहरा असर गोदल के कारोबार पर पड़ा। उसने काली से दोस्ती की और किसी तरह दोनों साथ रहने लगे। गोदल उसे अपना गुरु कहता।
एक बार जब ट्रेन में काली बाउल गा रहा था, उस वक़्त गोदल ने हाथ बढ़ाकर पैसे लेने शुरू किए। इस पर काली को बहुत ग़ुस्सा आया था। वह पैसे के लिए हाथ नहीं बढ़ाता था, जिसे देना हो, वह ख़ुद हाथ बढ़ाकर कोई सिक्का या नोट उसके कमण्डल में डाल दिया करता, जो अक्सर उसके काँधे से लटका करता। इसी कमण्डल में खाना, इसी में कमाना। यह कमण्डल जैसे ग़ैब और उसके दरमियान का पुल था।
शर्त यह तय हुई कि गोदल खाना-पीना तैयार करेगा और काली ट्रेनों में घूम-घूमकर गाना गाएगा। बाक़ी बचे वक़्त में काली गोदल को बाउल गीत सिखाएगा। और यह सिलसिला चलने लगा।
वक़्त के साथ-साथ गोदल दो-एक मशहूर गीत सीख और समझ चुका था।
एक बार चिलम भरते-भरते गोदल ने काली से पूछा, “शादी की थी या नहीं?”
काली ने जवाब दिया, “नहीं!”
गोदल ने फिर पूछा, “अब कब करोगे?”
काली ने एक ऐसी धीमी मुस्कान के साथ—जो सिर्फ़ बहुत ऊँचे मेयार के साधकों में देखने को मिलती है—कहा, “करूँगा… ज़रूर करूँगा, जिस दिन वो मिल जाए, जो मेरा अस्ल रूप है, ज़रूर करूँगा।” और धुत्त गाना शुरू कर दिया।
“मिलन होबे कोतो दिने…
ओ आमार मोनेर मानुष एर सोने…”
गोदल सिर हिलाते हुए गाँजा टानने लगा।
आधी रात को गोदल की आँख खुली तो देखा कि फ़क़ीर गहरी नींद में है। एक ही पल में उसके अनपढ़ मन को तारीख़ की वे बातें याद आने लगीं, जिसमें वह सुना करता था कि बेटे ने बाप का क़त्ल करके सिंहासन अपने नाम किया। उसने उसकी धोती और पगड़ी उतार दी। फिर एक चाक़ू दिए की आग में हल्का गर्म करके काली के सीने में उतारता चला गया। फ़क़ीर के मुँह से निकलने वाली आवाज़ गुज़रती रेल के नीचे आकर क़त्ल हुई। उसने उसकी लाश को पटरी के किनारे फेंका और झोपड़ी में आकर दो घूँट शराब की लगाकर चैन से सो गया।
सुबह उसी फ़क़ीर की तरह तैयार होकर, कमण्डल लेकर वह ट्रेन में दाख़िल हुआ। उसके पास सब था लेकिन वो ग़ैबी नग़मों-सी मुस्कान नहीं थी। गेरुआ उसके बदन का हिस्सा नहीं लग रहा था। उसने पहला गीत पकड़ा कि किसी ने छेड़ा, “बीए होबे कोतो दिने?” (शादी कितने दिनों में होगी)।
गोदल ने वही जवाब दुहराया जो उसे काली ने पिछली रात दिया था। पर नहीं, यह तरकीब काम न कर सकी। राजा की मौत के बाद जैसे लोगों ने राज्य ही ठुकरा दिया हो। राजकुमार का सिंहासन बे-मअनी है। सुबह-शाम लाख कोशिशों के बाद भी वह उतने पैसे नहीं कमा सका जितना अमूमन काली को यूँ ही मिल जाया करते थे। वापिस अंधा-लंगड़ा बनने का ज़ोर भी मन से जाने लगा था। मन तो वैसे भी हमेशा का अंधा है, तभी यह दुनिया उसे रंगीन नज़र आती है।
“न! अब और नहीं!” उसने सोचा और किसी स्टेशन पर उतर गया, कि अब दुनिया के दूसरे रंग भी देखने हैं, जो नये हों।
चलते-चलते वह दो स्टेशन के बीच किसी जगह पर पहुँच गया। वहाँ उसकी नज़र एक गुम्बद पर गई, जिस पर तीन लोग कुछ काम कर रहे थे। सभी बाँस अभी खोले नहीं गए थे। वह उस तरफ़ हो लिया। नयी मस्जिद बन रही थी। वह वहीं बाहर अभी से बैठने लगा। अभी नमाज़ियों की आमद में दस-बारह दिन तो थे, लेकिन वह अभी से एक कोने में चूड़ा-गुड़ लेकर बैठ जाया करता।
धीरे-धीरे एक-दो लोगों से पहचान हुई। पहले दिन कई लोगों का आना हुआ। उसने बाहर बैठे-बैठे सभी से चप्पल उतरवायीं और निगरानी करने का ज़िम्मा उठा लिया। लौटते में सभी जूतों के मालिक-मालकिनों ने उसे पैसे दिए और काफ़ी दिनों बाद उसकी जेब भारी हुई।
अब वह लुंगी और पंजाबी पहनने लगा था। कभी-कभी लोगों के इसरार पर नमाज़ के वक़्त नमाज़ पढ़ने भी जाता, वजू की नक़ल करता, सजदे के वक़्त जाने क्या बड़बड़ाता, कुछ वक़्त मौलवी की बातें सुनता और वापिस चप्पलों की देखभाल करने लौट आता।
सिलसिला बेहतर चलने लगा। उसकी कमाई में बरकत हुई। अब हर वक़्त पेट भरा रहने लगा था। और अब उसे एक औरत की ज़रूरत महसूस हुई। औरतें आतीं, तो उनकी चप्पल उतारने को वह ख़ुद अमादा हो जाया करता। इधर-उधर नज़रें बचाकर उन्हें देखा करता।
एक दिन वाशरूम में एक नमाज़ी के पास उसका भेद खुला और अगले ही पल जान बचाने की ख़ातिर वह हवा में गुम हो गया। बात जब इमाम तक पहुँची, तो उन्होंने तय किया कि अगली बार हाथ आया तो उसकी मुसलमानी पक्की है।
भागता हुआ अबकी बार वह एक शमशान पहुँचा। वहाँ किसी मुर्दे के कपड़े मिले और उसने अपने पहले हुलिए से नजात पा ली। दाढ़ी-मूँछ बराबर होने तक अपना चेहरा धोती में छिपाए रखता। सीढ़ियों पर बैठे-बैठे अमीरों के मरने की दुआ करता।
यहीं शमशान के दरवाज़े की दूसरी तरफ़ एक लड़की बैठा करती। अचानक उसके आ जाने पर लड़की उसे हसद से देखा करती थी। यहाँ फिर ज़िन्दगी एक रौ में आयी। गोदल को फिर किसी औरत की ज़रूरत आन पड़ी। वह अब दरवाज़े पर बैठने लगा, अक्सर उस लड़की को देखा करता और सोचा करता कि वह अन्दर आकर भीख क्यों नहीं माँगती! साधू के भेस में बैठे उसे निहारता रहता। वह अपने फटे-उधड़े कपड़े समेटती रहती। उचक-उचककर उसे देखते रहने से गर्दन में दर्द शुरू हो जाता। कभी- कभी कोई दूसरा भिखारी आता और लम्बे वक़्त तक उससे बातें करता। दोनों हँस-हँस कर बातें करते। इस वक़्त उसकी गर्दन हवा में टँग जाती थी।
एक शाम गोदल उसके पास जाकर बैठ गया और अनमने तौर पर बीड़ी फूँकने लगा। उसकी नज़र लड़की के घुटने पर गई या शायद पहली बार उसने ध्यान दिया कि लड़की के घुटने पर एक पुराना ज़ख़्म है, जिस पर मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं।
“मुझसे शादी करेगी?”
इस सवाल के जवाब में लड़की ने कई तरह की गालियाँ बकनी शुरू कर दीं। वह बेशर्म आशिक़-सा वहीं का वहीं गड़ा रहा। लड़की ने उसे धमकाया कि जो भिखारी उससे मिलने आता है, वह उसका आशिक़ है और गोदल की इस हरकत के बारे में उसे पता लगा तो वह उसके टुकड़े-टुकड़े कर देगा।
“तेरे घुटने का इलाज करा दूँगा मैं…”
गोदल ने एक सेब अपनी झोली से निकालकर उसके सामने रख दिया। वह झटपट खाने लगी। दोनों में कोई रिश्ता न होने के बावजूद भी दोनों का भूख से बेहद गहरा रिश्ता था। सो, कभी कोई मौक़ा हाथ से जाने नहीं देते थे।
“मैं मुसलमान हूँ।”
“हम भिखारियों का भी जात-धरम होता है?!”, वह हँसा।
“होता है! तभी, मैं कभी उस शमशान के दरवाज़े के अन्दर नहीं गई।”
“मैं भी मुसलमान था, लगभग छः महीने, मस्जिद के अन्दर भी जाता था।”
लड़की ने उसे सवाल भरी नज़रों से देखा और फिर खाने में मसरूफ़ हो गई।
“फिर?”
“फिर किसी ने मुझे पेशाब करते देख लिया।”
दोनों एक अजीब-सी हँसी हँसने लगे, जिसमें ज़िन्दगी अक्सर नंगी दिखायी देती है।
गोदल उसे अपनी पीठ पर लादकर अपनी नयी झोपड़ी की तरफ़ बढ़ने लगा।
“कहाँ से आया इधर?”
“अपनी माँ के पेट से… नाम क्या है तेरा?”
“सकीना। तेरा?”
“गोदल।”
“गोदल?”
फिर वही डरावनी हँसी…
“मुझसे शादी करने के लिए तुझे भी मुसलमान होना पड़ेगा।”
फिर दोनों हँसे।
शाम के सूरज पर रात की चादर चढ़ने लगी था और दोनों इस मंज़र में हर लम्हा छोटे होते जा रहे थे।
दूसरे दिन सकीना के आशिक़ ने आते ही उसे बुरी तरह पीटना शुरू कर दिया। सकीना बार-बार गोदल की तरफ़ देखती। गोदल यह सब नज़रअंदाज़ करते हुए भीख जुटाने में मशग़ूल रहता। उसका आशिक़ श्मशान का दरवाज़ा लाँघ नहीं सकता था, सो बस उसे बाहर से गालियाँ देता और बाहर आने को कहता। गोदल के कान पर जैसे जूँ भी न रेंगती। और आख़िर तक सकीना का आशिक़ उसे पीटते हुए थक गया और उसके बग़ल में बैठा। उसने बीड़ी सुलगायी।
“मैं भी तेरे पाँव का इलाज करा सकता हूँ, लेकिन फिर तू सुन्दर हो जाएगी… तुझे भीख नहीं मिलेगी।”
“मुझे और भीख नहीं माँगना। तू भरोसे के लायक़ नहीं है, ये देख!” उसने अपनी कलाई दिखायी, जो रंग-बिरंगी चूड़ियों से भरी हुई थी।
“तो तू उसी के साथ जाएगी? अरे वो धंधा कराता है।”
“हमको सब पता है। कौन क्या करता है, कराता है।”
बातों में न जीत पाने पर उसने सकीना के घाव पर एक आख़िरी लात चलायी और गालियों की बौछार करते चलता बना।
शाम को सकीना और गोदल देर तक रास्ते पर बैठे रहे। गोदल अपने गेरुए में और सकीना अपने रंग में।
“तुझे बचाने आता तो तेरे लिए पैसे कैसे कमाता? और फिर लोग क्या बोलेंगे एक साधू और एक मुसल…”
“साधू ना छाई…”, वो मुँह टेढ़ा करती है।
दोनों चुप रहते हैं।
“कल मेरे साथ क़ाज़ी साहब के पास चलना। वो ही रास्ता बताएँगे।”
गोदल हाँ और ना के दरमियान कुछ देर तक झूलता रहा, फिर समझ आया कि उसके लिए धरम-करम से बड़ी चीज़ है कि उसकी एक-आध तमन्ना पूरी हो सके। फिर उसे याद भी नहीं आता कि आख़िरी बार इतने हक़ से किसी ने कब उसे कुछ कहा था। उसे वह ज़रा-सी ज़िन्दगी महसूस होती है, जिस ज़रा-सी ज़िन्दगी के लिए सब कुछ क़ुर्बान किया जा सकता है। घर, बीवी, सुबह-शाम का मामूल, बच्चे, एक बेहद आम-सी रवायत जिससे गोदल जैसे लोग ज़िन्दगी-भर नावाक़िफ़ रह जाते हैं।
2
घाव सूख चुका है। दोनों की शादी भी हो गई। दर्द बदन की ज़द में आते ही गोदल वापिस घाट पर जाना शुरू करता है। सकीना के घुटने पर डॉक्टर की पहली पट्टी अब पीली होकर पपड़ी में तब्दील हो गई है। बदन, दर्द और बुख़ार में टूट चुका है। इसके कुछ फ़ायदे ज़रूर मिलने शुरू होते हैं। कुछ महीने सब हस्ब ए मामूल चलता है।
सकीना पेट से है। उसका ख़याल रखते हुए कई बार गोदल के दिल में यह बात ज़रूर आती है कि इस मौक़े पर भीख माँगने का धंधा अच्छा चलेगा। जैसे ही पेट दिखना शुरू होता है, वह सकीना से काम पर जाने की बात कहता है।
नहीं… अब सकीना को काम पर जाने की क्या ज़रूरत है? घुटने का इलाज नहीं कराया, न सही, लेकिन कम अज़ कम यह आराम तो गोदल उसे दे कि वो घर रह सके।
एक शाम गोदल नशे में घर आया और मियाँ-बीवी में पहली बार झगड़ा शुरू हुआ। यह शादी के बाद की शराब थी। शादी के पहले यही शराब उसे सकीना के सातों रंग दिखाया करती थी। पर अब शादी के बाद यही शराब उसे सकीना के ख़िलाफ़ कर रही होती है।
“अब भी भीख नहीं माँगेगी तो तेरा बाप तुझे खिलाएगा, रंड…”
“शादी के पहले तो ख़ूब सकीना, सकीना करता था। भड़वा। न मेरे पैर का इलाज कराया और न चैन से बच्चा पैदा करने देगा…”
“अरे बच्चा रोड में पैदा कर। कुछ ज़्यादा भीख देगा सब।”
“भाग यहाँ से। सू…”
उसका घर, उसकी झोपड़ी और यह लड़की उसे गालियाँ दे रही है। गोदल ने नशे में लात चलायी और लात उसके पेट से होते उसके घुटने पर गिरी। बहुत दिनों पर ताज़ा ख़ून की धार निकली, सकीना दर्द से चिल्लाती रही, इधर गोदल नशे में गालियाँ देते हुए ज़मीन पर सो गया।
बच्चा पैदा हुआ। पर सकीना दो-तीन दर्द एक साथ सह न सकी और उसकी जान निकल गई। मरा हुआ हाथी भले सवा लाख का होता हो, लेकिन मरा हुआ आदमी किसी काम का नहीं होता। गोदल कम से कम ख़र्च में सकीना को निपटाना चाहता था। उसने लावारिस लाश उठाने वालों से बात की और सौ-डेढ़-सौ में उसे उनके हवाले कर दिया।
वह फिर अकेला था, पर उतना नहीं जितना पहले हुआ करता था। इस बार बच्चा भीख माँगते वक़्त उसके साथ हुआ करता। बच्चे का मुँह देखकर कई लोग उसे भीख दे भी दिया करते। लेकिन भीख लेते वक़्त ऐसा लगता जैसे भीख देने वाला और सारी दुनिया बच्चे को इशारे से कह रही हो, “देख तुझे वजूद में लाने वाला, तेरा बाप कितना बड़ा कंगाल है। तू बस रोया कर क्योंकि तेरे पैदा होने से क़ुदरत का कोई लेना देना नहीं…”
और बच्चा रो पड़ता।
इन्हीं आवाज़ों में बच्चा इतना बड़ा हो गया कि वो माँ-माँ बोल सके। गोदल को आजकल बेटे के सामने भीख माँगना अच्छा नहीं लगता था।
एक रात फिर नशे की हालत में गोदल उसे गोद में उठाकर चल दिया। नशे के किस लम्हे में उसने तय किया कि अबकी वह वापिस अपने पुराने घर पहुँचा। घर के कोने-कोने की ईंट नंगी नज़र आती थी। दो ईंटों के बीच की लकीरें उसे अपनी क़िस्मत की लकीरें समझ आतीं। कहीं-कहीं पीपल के छोटे-छीटे पौदे नज़र आते। दो दिनों तक वह यूँ घर में पड़ा रहा, जैसे किसी गहरी सोच में मुब्तिला हो। इन दिनों में बच्चा न ठीक से खा सका और न नहा सका। उसका चेहरा मुरझा गया। वो रोते हुए आँसू चाटता रहता, लेकिन गोदल उसकी तरफ़ कोई तवज्जो नहीं देता।
चौथे दिन सुबह उठकर गोदल ने बची दारु की दो घूँट लगायी और बच्चे को गोद में उठाया। उसे अपनी आँखों के पास लाकर हँसाता हुआ ज़मीन की तरफ़ छोड़ दिया। एक ही पल में पूरा घर बच्चे की तेज़ चीख़ से भर गया। उसके रोने में जैसे सकीना और गोदल के ठहाके तैर जाते। जब बच्चे का रोना कम हुआ तो गोदल ने उसकी पट्टी की और पास वाले घाट पर उसी जगह बिठाया, जहाँ अपनी माँ को बिठाया करता था।
विजय शर्मा की कहानी 'अधूरी वसीयत'