शहज़ादा लिपटता है मुझसे और दूर कहीं
चिड़िया को साँप निगलता है
साँसों में घुलती हैं साँसें और
ज़हर उतरता जाता है
लम्हात के नीले क़तरों में
कानों में मिरे रस घोलता है शब्दों का मिलन और मन भीतर
इक चीख़ सुनायी देती है
जलती पोरों में काँपती है बेमाया लम्स की ख़ामोशी
उसके हाथों से लिखती हूँ मैं इश्क़-बदन की मिट्टी पर
उसकी आँखों के गोरिस्ताँ में देखती हूँ इक क़ब्र नयी
और शहज़ादे के सीने पर सर रखकर सो जाती हूँ!

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