मेरा बाप नंगा था
मैंने अपने कपड़े उतार उसे दे दिए
ज़मीन भी नंगी थी
मैंने उसे
अपने मकान से दाग़ दिया
शर्म भी नंगी थी, मैंने उसे अपनी आँखें दीं
प्यास को लम्स दिए
और होंठों की क्यारी में
जाने वाले को बो दिया
मौसम चाँद लिए फिर रहा था
मैंने मौसम को दाग़ देकर चाँद को आज़ाद किया
चिता के धुएँ से मैंने इंसान बनाया
और उसके सामने अपना मन रखा
उसका लफ़्ज़ जो उसने अपनी पैदाइश पे चुना
और बोला!
मैं तेरी कोख में एक हैरत देखता हूँ

मेरे बदन से आग दूर हुई
तो मैंने अपने गुनाह ताप लिए
मैं माँ बनने के बाद भी कुँवारी हुई
और मेरी माँ भी कुँवारी हुई
अब तुम कुँवारी माँ की हैरत हो
मैं चिता पे सारे मौसम जला डालूँगी
मैंने तुझमें रूह फूँकी
मैं तेरे मौसमों में चुटकियाँ बजाने वाली हूँ मिट्टी क्या सोचेगी
मिट्टी छाँव सोचेगी और हम मिट्टी को सोचेंगे
तेरा इंकार मुझे ज़िन्दगी देता है

हम पेड़ों के अज़ाब सहें
या दुःखों के फटे कपड़े पहनें!

Book by Sara Shagufta:

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सारा शगुफ़्ता
(31 अक्टूबर 1954 - 4 जून 1984)सारा शगुफ़्ता पाकिस्तान की एक बनेज़ीर शायरा थीं। 1980 में जब वह पहली और आख़िरी बार भारत आयी थीं तो दिल्ली के अदबी हल्क़ों में उनकी आमद से काफ़ी हलचल मच गयी थी। वह आम औरतों की तरह की औरत नहीं थीं। दिल्ली के कॉफी हाउस मोहनसिंह प्लेस में मर्दों के बीच बैठकर वह विभिन्न विषयों पर बहस करती थीं। बात-बात पर क़हक़हे लगाती थीं। पर्दे की सख़्त मुख़ालिफ़त करती थीं और नारी स्वतन्त्रता के लिए आवाज़ बुलन्द करती थीं। यही नहीं वह आम शायरात की तरह शायरी भी नहीं करती थीं। ग़ज़लें लिखना और सुनना उन्हें बिल्कुल पसन्द न था। छन्द और लयवाली नज़्मों से भी उन्हें कोई लगाव नहीं था। वह उर्दू की पहली ‘ऐंग्री यंग पोएट्स’ थीं और ऐंगरनैस उनकी कविता की पहली और आख़िरी पहचान कही जा सकती है।

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