‘Qasam’, a poem by Anurag Tiwari
क़समें बैठी रहती हैं
प्रेम के बग़ल में दुबककर
जब क़समें झूठी पड़ने लगती हैं
थक जाती हैं
तो कहाँ जाती होंगी क़समें
क़समें हवा में उड़कर आज़ाद हो जाती हैं
फिर किसी दूसरे प्रेम के बग़ल में दुबकने
क्यूँ खाई जाती हैं वही क़समें प्रेम में बार बार
जाया क्यूँ हो वक़्त क़सम संभालने में
जो किया जाए
वह क्यूँ न किया जाए बग़ैर क़सम
जो न भी किया जाए
तो क्यूँ किसी क़सम का डर हो
प्रेम को लगता है
लगती है नज़र क़समों की
मैं क़सम खाता हूँ
कि बग़ैर किसी क़सम के तुम्हें प्रेम करूँगा।