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मानव कौल के उपन्यास ‘अंतिमा’ से उद्धरण | Quotes from ‘Antima’ by Manav Kaul

चयन व प्रस्तुति: पुनीत कुसुम

 

“बहुत वक़्त तक मैं मेरे भीतर की चंचलता और अपने बचकानेपन को ही उपन्यास न लिख पाने का मुख्य कारण मानता रहा था। इसलिए शायद मैं जल्दी से बूढ़ा हो जाना चाहता था।”


“मुझे तो निज के ख़र्च हो जाने का डर सताता रहता। मैं ख़ुद को बचाने में लगा रहता था हमेशा। हमेशा लगता था कि‍ मुझे अपनी चवन्नी हमेशा अपने पास बचाकर रखनी है।”


“बाहर खुला नीला आकाश था और भीतर एक पिंजरा लटका हुआ था। बाहर मुक्ति का डर था और भीतर सुरक्षित जीने की थकान। उसे उड़ने की भूख थी और भीतर पिंजरे में खाना रखा हुआ था।”


“एक झूठ इस सारे लिखे में इतना ज़्यादा आवाज़ कर रहा होता है कि जब तक मिटा न दो, डिलीट न कर दो तब तक आप सो नहीं सकते।”


“हम अपने घरों में रहते हुए भी कभी घर में थे ही नहीं। हम हमेशा बाहर जाने या बाहर से आने के बीच की तैयारी में सुस्ताने के लिए यहाँ रुकते थे।”


“अगर सब कुछ साफ़-सुथरा और ख़ाली होगा तभी तो कुछ नया भीतर प्रवेश कर सकेगा। भले ही वह नयी धूल के रूप में ही क्यों न आए।”


“हमेशा सुबह होते ही रात के सारे डरों पर हँसी आती है, पर रात में वे सारे डर आपके एकदम बग़ल में सो रहे होते हैं। लगता है कि आप एक ग़लत करवट लेंगे और उनसे सामना हो जाएगा।”


“किसी भी सम्बन्ध में, उस सम्बन्ध के सुंदर क्षणों का एक बोझ होता है। हम किसी भी हद तक साथ बिताए उन पलों को सहेजकर रखना चाहते हैं। कई बार इस कोशिश में हम उस व्यक्ति का बोझ सालों तक अपने कंधे पर ढोते रहते हैं, इस डर से कि कहीं वह हमारे जिए हुए पर थूककर न चला जाए।”


“मेरे और मेरे पिता की कभी बनी नहीं, क्योंकि मैं कभी भी उनका वह आदर्श बच्चा नहीं हो पाया था जिसे वह समाज को दिखाकर ख़ुशियाँ लूट सकें। मैंने उनकी ख़ुशियों के दरवाज़ों पर बहुत पहले ही ताले लगा दिए थे, जिसकी वजह से हमारे घर के अंदर बची रह गई कड़वाहट पर लगातार बहस हो जाती थी।”


“मेरे शब्दों में जब भी वह ऐसे सम्वाद सुनते हैं जिनसे ऐसा लगे कि मैं उनका ख़याल रखता हूँ तो वह बिदक जाते हैं।”


“चुप्पी की आँखें अलग होती हैं। वे देखती कम और सोचती ज़्यादा हैं।”


“एक अच्छे सम्वाद की तलाश में सारा स्नेह बह जाता है और सिर्फ़ भारीपन रह जाता है।”


“अपने डरों को सामने बिठाकर उनसे बात कर लो तो पता चलता है कि वह कितने दयनीय हैं।”


“हमारा अतीत बस पलटने भर की दूरी पर रुका हुआ है और हर बार अतीत से वर्तमान तक आने में एक छोटी छलाँग लगाने की ज़रूरत है।”


“अगर सूरजमुखी की कहानी लिखोगे तो उसका मुरझाना भी दर्ज करना पड़ेगा।”


“हम बार-बार अपने सीखे हुए क़ायदों के ताश के पत्तों को उलट-पलटकर देखते हैं… कभी उन क़ायदों का राजा हम पर हँस रहा होता है, तो कभी हम क़ायदे के जोकर को जेब में रखकर मज़दूरी पर निकल जाते हैं।”


“कल रात बहुत शिकायतें थीं तुमसे, पर अभी तुम्हें लेकर थकान है।”


“मैंने अपने सपनों को अपने पास ही रखा, उन्हें पिता से चल रहे सम्वादों तक नहीं पहुँचने दिया।”


“क्या हुआ था और क्या लिखा जाना चाहिए? हमेशा ऐसा लगता है कि यह चुनाव सिर्फ़ लेखक के हाथ में होता है। पर असल में उसके हाथों में कुछ नहीं होता है। वह अपने पात्रों से ईमानदार रहने के चक्कर में मारा जाता है। निजी जीवन में झूठ और छल आसान है, पर लिखे में आपके पात्र आपको कभी माफ़ नहीं करते। आपको बार-बार अपने लिखे पर वापस जाना होता है और जब तक आप सारे छल को काटकर बाहर नहीं कर देते, तब तक पात्र अपने निज में आपका प्रवेश रोके रखते हैं।”


“एक लेखक का बॉस कौन है? या कौन होना चाहिए? मुझे नहीं पता, बस यह जानता हूँ कि नया कहने में कोई भी सहायता नहीं करता। आप उस दुनिया में एकदम अकेले हैं।”


“कितने दिनों बाद अचानक बातचीत का गहरा स्वाद आना शुरू हुआ है। आपके डरों से आपके ख़ुद के सम्वाद बहुत भयावह होते हैं। अंत में कौन जीतेगा इसका फ़ैसला हमेशा सबसे कमज़ोर घड़ियों में होता है।”


“हर आदमी कितना ख़ूबसूरत दिखने लगता है, जब वह अपनी पूरी तल्लीनता से किसी काम में घुसा हुआ होता है!”


“सुख की एक ख़ुशबू होती है। उस ख़ुशबू के आते ही पीड़ा के टूटे पड़े बासी क्षण इस क़दर ज़िंदा हो जाते हैं कि लगने लगता है यह क्षण कितना पराया है जबकि ख़ुशबू कितनी अपनी है। एक दिन भूखे रह जाएँगे की कल्पना में हम अपने में से पराया निकालना भूल जाते हैं। बाद में हमारी डकारों में देर तक सुख बसता रहता है।”


“मैं अपनी कही हर बात पर पछता रहा था। छोटे शहरों से आए लड़कों को बहुत वक़्त लगता है—एक अच्छा इंसान बनने में। नहीं, बात छोटे शहरों की भी नहीं है। इस पुरुष समाज से आए लोगों को बहुत ज़्यादा वक़्त लगता है—औरतों को इंसान मानने में। हमें लगता है कि हम बदल गए हैं, पर ये पुरुषप्रधान समाज के सारे दाँव-पेच इतने ज़्यादा ख़ून में रचे-बसे हैं कि अगर हमें बदलना है तो हमें लगातार सचेत रहना पड़ता है अपने कहे में, वरना ये गंदगी के साँप जो हमारे ख़ून में हैं, ये हर बार मौक़ा देखकर डस लेते हैं; जैसे कि अभी मेरे भीतर की गंदगी ने मुझे फिर डस लिया था। और हम इतने गले-गले तक इस गंदगी में धँसे हुए हैं कि इसकी माफ़ी पर हमारा हक़ नहीं है।”


“पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम सबने अपनी माँओं को पूजा है और बदले में उन्हें मुफ़्त का नौकर बनाकर रखा है।”


“तुम डरे हुए नदी किनारे खड़े हो, जबकि कहानी पानी के नीचे की दुनिया में पड़ी हुई है।”


“मुझे अपने लिखे की आँच चाहिए थी।”


“लिखने के सुर में हमेशा लगता है कि अगर थोड़ा बाद में लिखूँगा तो शायद कोई बहुत ख़ास चीज़ पन्नों पर दिखने लगेगी। किस ख़ास चीज़ का इंतज़ार है, यह कभी नहीं जान पाया। जब मैं किसी का लिखा पढ़ता हूँ तो अधिकतर इस तरीक़े की ख़ास चीज़ें ही मुझे बहुत अखरती हैं। मुझे साधारण-सी दुनिया का सादा ब्योरा हमेशा आकर्षित करता रहा है।”


“कुछ ज़ंग लगे तालों को कभी नहीं खोलना चाहिए, उनके खुलते ही सुंदर अतीत के मुरझाए सूरजमुखी ज़ार-ज़ार नज़र आते हैं।”


“अब नेचर नाच रहा है और हम घरों में बंद, नेचर को कैसे वापस उसके घुटनों पर ले आएँ, ये प्लान बना रहे हैं।”


“जो किताबें मुझे बहुत पसंद हैं, उनका ज़िक्र मैं कम ही लोगों से करता हूँ। मुझे हमेशा लगता है कि मेरे और मेरी पसंदीदा किताब के बीच एक बहुत ही निजी सम्बन्ध बन गया है, उसके बारे में बात करके मैं उस किताब का इस्तेमाल लोगों को अपनी तरफ़ आकर्षित करने के लिए कर रहा हूँ। यह मेरी मूर्खता है, पर यह मेरे भीतर कहीं बह रही होती है, सो मैं अपनी पसंदीदा किताबों के नाम के आगे के सारे सम्वाद स्थगित रखता हूँ।”


“लोगों में कुछ अप्रत्याशित होने की लालसा उबलती दिखती है। अपने मनोरंजन के लिए हम चाहते हैं कुछ और घटित होता रहे जिसकी व्यस्तता में हम अपने होने के निशान ढूँढ सकें। हर व्यक्ति अपनी शिरकत चाहता है। वह महज़ दूर बैठकर घटनाओं का गवाह भर नहीं बना रहना चाहता है। उस शिरकत में वह हर उस अफ़वाह को आगे बढ़ाना चाहता है जिसकी त्रासदी सीधा उससे न जुड़ी हो। जबकि सारा कुछ हम सबसे जुड़ा हुआ है।”


“मेरे पास, अपने पात्र से ईमानदार होने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।”


“प्रेम को लिखना, प्रेम को पा लेने की संरचना का ही हिस्सा है।”


“एक ही पटरी पर चल रहे, पुराने पड़ गए जीवन से नयी ग़लतियाँ भी बिदकती हैं।”


“अचानक मुझे लगा कि यह मेरा पात्र है जो अपने लेखक से जिरह करने आया है कि उसका जो नाम रखा गया है, वह उसे पसंद नहीं है।”


“असहजता और सहजता एक ही है। आस-पास का सारा कुछ एक ही है। अतीत कुछ भी नहीं है… सारा कुछ वर्तमान का ही हिस्सा है। जितना तुम अपने भीतर पाले बैठे हो, वह सारा कुछ घट रहा है अभी भी, ठीक इसी वक़्त, हम अतीत कहकर उसे झिड़क नहीं सकते हैं। वर्तमान के शरीर में धड़कता अतीत ही है।”


“मैंने कविताएँ लिखना भी इसलिए छोड़ा था क्योंकि मेरे लिखे और जिए के बीच अंतर मिटता चला जा रहा था। मैं कब कविता में प्रवेश करता था और कब अपने घर से बाहर निकलता था, इसके हिसाब में बहुत गड़बड़ी थी।”


“वह कौन-सा हिसाब है जिसके अंत में… हाथ में शून्य न आए?”


“जीने की उलझनें क्या लिखे में सुलझायी जा सकती हैं? या असल में लिखना एक तरह का माफ़ीनामा है, उनसे जिनके बारे में हमें पता है कि हमें कभी माफ़ नहीं करेंगे।”


“कविताओं में निज को छुपाने के बहुत पैंतरे हैं, पर कहानियों में हर अँधेरे कोनों में एक दिया जलता दिखता है।”


“हम इंसानों के जाने कितने छिछले-टुच्चे डर होते हैं, पर जानवरों का डर सीधा मौत का डर होता है।”


“उसके हिसाब से बिना किताबों के जीना यानी एक चौथाई जीना है।”


“शायद प्रेम की सारी अच्छी-बुरी गलियों को पार करके यह स्थिति आती है, जब दूसरे के छूते ही लगने लगता है कि आप घर आ गए हैं।”


“एक तरीक़े का तिलिस्म मैंने भीतर बना रखा था… जो भी पुराना भीतर दफ़न था, वो गुम जाने की हद तक छुपा पड़ा रहता था। एक लेखन ही था जिसे सारे दरवाज़े खोलने की इजाज़त मैंने दे रखी थी। लिखने में ही दफ़न हो चुका सारा कुछ नदी के ऊपर आकर तैरने लगता था। इसलिए मैं अपने लिखे से बहुत डरा हुआ भी रहता हूँ।”


“किसी भी चीज़ के पैदा होने में तकलीफ़ तो है। एक बीज को भी ज़मीन के भीतर जाकर टूटना पड़ता है, तब कहीं जाकर एक सुंदर पेड़ पैदा होता है।”


“किसी को कितना ज़्यादा जानना होता है, तब कहीं जाकर उसके भीतर की वह धरती हमें मिलती है जिसमें हमें लगता है कि हम आराम से सुस्ता सकते हैं!”


“अपने लिखे पात्रों से अनुमति माँगना, सपनों में आए लोगों से अनुमति माँगना है। आपके पात्र आपका झूठ सूँघ लेते हैं और अंत में सपना टूट जाता है।”


“तुम मेरे लिखे में अलग-अलग नाम लेकर आती रहोगी। मैं अगर यह अभी नहीं लिखूँगा तो इसके आस-पास के लिखे में तुम हमेशा भटकती रहोगी। मुझे इसे लिखकर ख़त्म करना ही पड़ेगा।”


“हम हमेशा से सच कहना, सच्चा प्रेम देना चाहते हैं। पर सच एक वक़्त पर आकर इतना बोरिंग हो जाता है कि उसमें से प्रेम निचोड़े नहीं निचुड़ता।”


“सबसे ख़तरनाक होता है—अपने पात्रों के मोह में फँस जाना। मुझे नहीं पता कि मैं इन सबके बिना क्या करूँगा? बार-बार सारा कुछ बनाना और उसे अपनी आँखों के सामने ख़त्म होता देखना कितनी बड़ी हिंसा है। इस हिंसा के घाव जाने कब तक पीड़ा देते रहेंगे। क्या हम एक ही कहानी को अंत तक नहीं लिख सकते हैं? या शायद हम एक ही कहानी अंत तक लिख रहे होते हैं?”


“पहला झूठ बहुत पीड़ा देता है। पर एक बार सच की दीवार में सेंध लग जाए तो फिर झूठ की आवाजाही, हमारे दैनिक जीवन में सच की ठण्डी ख़ुशबू फेंकने लगती है और मन भी उतना क्लांत नहीं होता है।”


“हमें अपने पात्रों से लिखने के बाहर सम्वाद नहीं करने चाहिए। वे हमारे डर और कमज़ोरी सूँघ लेते हैं।”


“हमें अपनी कहानी के मुख्य पात्र भी पहली नज़र में पुरुष ही दिखते हैं।”


“यह दुनिया कब की ख़त्म हो जाती, अगर इस जीवन में चल रही सारी क्रूरताओं के बीच बेहद कोमल प्रेम लगातार न घट रहा होता।”


“किसी की मृत्यु पर दुःख असल में धोखे का होता है। हम आवाज़ लगा रहे हैं और दूसरी तरफ़ उसे सुनने वाला कोई भी नहीं है अब। कोई ऐसे कैसे बीच में उठकर जा सकता है?”


“किसी को चाहने में हम किस क़दर उसके जैसा होने लगते हैं! उसकी भाषा, उसका हँसना, उसके उठने-बैठने के अंश हमें हमारे दैनिक जीवन में दिखने लगते हैं। वह कब और कहाँ से भीतर घुस गया था, इसका ब्योरा हम ठीक-ठीक किसी को नहीं दे पाते हैं। उसके अंश दिखते ही एक लाचारी भरी टीस भीतर उठती है और हम गहरी साँस लेकर उसे दबाने की नाकाम कोशिश कर रहे होते हैं। किसी के जैसा हो जाना या किसी को अपना बनाना मृत्यु के कितना क़रीब है!”


“जीने की प्रक्रिया में हमेशा सवाल जमा होते रहते हैं। कुछ जवाब मिल जाते हैं, कुछ सवाल धुँधले पड़ जाते हैं और कुछ आपके साथ, अपनी पूरी तीव्रता लिए रहने लगते हैं।”


“हम बच जाना चाहते हैं उन सारे इल्ज़ामों से भी जो हमें पता है कि भविष्य में भी हम पर कभी नहीं लगेंगे।”


“बहुत उम्र का होना शादी में आए उस मेहमान की तरह है जिसे सारा कुछ जीकर अपने समय से चले जाना चाहिए था। पर वह उस घर में टिका हुआ है, शादी के कई सालों बाद भी। इसलिए अगर कोई तुम्हें लम्बी उम्र की दुआ दे तो उसे दौड़ा लेना। वह असल में तुमसे बदला लेना चाहता है।”


“मुझे पहाड़ लिखने के लिए शहरों की ज़रूरत होती है और शहर लिखने के लिए पहाड़ों पर जाना पड़ता है।”

 

मानव कौल के उपन्यास 'अंतिमा' से किताब अंश

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