विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ से उद्धरण | Quotes from ‘Deewar Mein Ek Khidki Rehti Thi’, by Vinod Kumar Shukla

चयन एवं प्रस्तुति: पुनीत कुसुम

 

“एक काम के न होने का एहसास दूसरे काम के करने पर भुला दिया जाता है चाहे दूसरा काम करने जैसा न भी हो।”


“हाथी अपनी समझदारी और महावत की समझदारी के साथ-साथ चलता है।”


“हाथी आगे-आगे निकलता जाता था और पीछे हाथी की ख़ाली जगह छूटती जाती थी।”


“हर बार देखने में उसे छूटा हुआ नया दिखता था। क्या देख लिया है, यह पता नहीं चलता था। क्या देखना है, यह भी नहीं मालूम था। देखने में इतना ही मालूम होता होगा कि यह नहीं देखा था।”


“मन की खिड़की और बड़ी होती तो ठीक था। मन का हाथी बड़ा है।”


“मैं घर लौट नहीं रहा हूँ। मैं यहाँ लौटूँगा।”


“खिड़की से आकाश दिखता था, इसलिए खिड़की से झाँकते हुए बच्चे आकाश से झाँकते हुए लगते थे।”


“ओझल हो गए के पीछे-पीछे ओझल होकर ही जाया जा सकता था।”


“देख लेने से वस्तुओं को पा जाने का सुख मिल जाता तो कितना अच्छा होता। मिठाई को देखते ही खाने का सुख। ऐसा होता तो दिखाने के लिए थोड़ी चीज़ें होतीं और सबकी ज़रूरत पूरी हो जाती। अनजानी ख़ुशी सोच-समझकर हुए दुःख को भी दूर कर देती थी।”


“जो आजीवन चला जाता हो, कोई खोज-ख़बर न हो, मृत्यु की ख़बर न हो तो अपने चला गया में वह हमेशा जीवित रहता है।”


“उसकी समझदारी पर एक सीमा तक विश्वास किया जा सकता था। जो समझदारी थी, वह सिखायी हुई समझदारी थी। इस सिखायी हुई समझदारी पर ही विश्वास किया जा सकता था। इसके अलावा जो था, उस पर विश्वास नहीं था।”


“कितने दिन हो गए को कितने दिन हो गए में ही रहने देना चाहिए। दिन को गिनती में नहीं समझना चाहिए। किसी को भी नहीं। गिनती चारदिवारी की तरह है जिसमें सब मिट जाता है। अन्तहीन जैसे का भी गिनती में अन्त हो जाता था। जो गिना नहीं गया, उसका विस्तार अनन्त में रहता था, कि वह कभी भी, कहीं भी है। चाहे कितना छोटा या कम क्यों न हो।”


“वह जागती हो या नींद में, संसार में जहाँ तक उसका हाथ पहुँचता, उसे अपने हाथ से और जहाँ हाथ नहीं पहुँचता, उसे मन ही मन सँवारती।”


“पहले तालाब चुप था, फिर छपाक्! बोला था। तालाब ने मछली का उछलना कहा होगा।”


“वर्तमान का सुख इतना था कि भविष्य आगे उपेक्षित-सा रस्ते में पड़ा रहता, जब तक वहाँ पहुँचो तो लगता ख़ुद बेचारा रस्ते से हटकर और आगे चला गया।”


“रात-भर अन्धेरे का इतना साथ था कि दिन का उजाला उन्हें बहुत उजाला लग रहा था। उन्हें लगा एक सूर्य से इतना उजाला नहीं हो सकता। दो सूर्य होंगे। सूर्य के डूबने के बाद जितना अन्धेरा होता है, वह एक सूर्य के डूबने से नहीं हो सकता था। कम से कम दो सूर्य डूबते होंगे।”


“बिजली के चमकने से अन्धेरे में जो दिख जाता था, वह दिखने के भ्रम जैसा सचमुच का दिखता था। फिर अन्धेरे में उसी समय नहीं दिखा जैसा हो जाता था।”


“याद किया हुआ जो दुनिया में है, उससे अधिक भूला हुआ दुनिया में था।”


“जाने के नाम पर अनिश्चित खड़े रहना अच्छा नहीं लगता।”

प्रियम्वद के उपन्यास 'धर्मस्थल' से उद्धरण

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विनोद कुमार शुक्ल
विनोद कुमार शुक्ल हिंदी के प्रसिद्ध कवि और उपन्यासकार हैं! 1 जनवरी 1937 को भारत के एक राज्य छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव में जन्मे शुक्ल ने प्राध्यापन को रोज़गार के रूप में चुनकर पूरा ध्यान साहित्य सृजन में लगाया! वे कवि होने के साथ-साथ शीर्षस्थ कथाकार भी हैं। उनके उपन्यासों ने हिंदी में पहली बार एक मौलिक भारतीय उपन्यास की संभावना को राह दी है। उन्होंने एक साथ लोकआख्यान और आधुनिक मनुष्य की अस्तित्वमूलक जटिल आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति को समाविष्ट कर एक नये कथा-ढांचे का आविष्कार किया है।