प्रियम्वद की किताब ‘धर्मस्थल’ से उद्धरण | Hindi Quotes by ‘Dharmasthal’, a book by Priyamvad

संकलन: विजय शर्मा

 

“रचना के संसार में जब तुम कुछ नया रचते हो, तो सबसे पहले स्वयं को नष्ट करना होता है। अपने रचनाकार होने के बोध को मारना पड़ता है। अपने को लघु करते जाओ, लघुतर करते जाओ, इतना कि नगण्य होने के बोध से आँसू बहने लगें…”


“अभी छोटे हो, पर जब बहुत से दुःख, बहुत से एकांत, बहुत सा निर्वासन मिलेगा, तब किसी विराट के शरण में चले जाना। एक बड़ा वृक्ष… बड़ी नदी… बड़ा आकाश… बड़ा पर्वत… बड़ी पृथ्वी। तुम देखना तुम्हारा दुःख तत्काल नष्ट हो जाएगा। वह तुमको आत्मसात कर लेगा। अपनी शरण में ले लेगा। तुम वही हो जाओगे।”


“यही बड़ी बात है कि तुम मरो तो लोग चाहते हों कि तुम और जिए होते।”


“मैं वही काम करता हूँ जो एक दार्शनिक करता है। यानी सत्य का अनुसंधान, सत्य की खोज। और सत्य क्या होता है? कहाँ होता है? अनेक संदेहों, संशयों के बीच जहाँ कुछ भी अंतिम, शाश्वत, इकलौता सत्य नहीं है, सिवाए मृत्यु के।”


“क्रिएटिविटी के किसी भी रूप का उद्देश्य भी संदेहों को हटाकर किसी सत्य की खोज करना है। यानी वही काम करना है, जो न्याय का है, क़ानून का है।”


“काल… जीवन… प्रकृति किसी में भी उपस्थित नहीं हूँ। एक दूसरे जगत, दूसरे धरातल पर खड़ा हूँ… इस तरह कि जब चाहूँगा यह सब छोड़कर चला जाऊँगा।”


“संदेहों के बीच सत्य की खोज करना ही दर्शन है, रचना है, न्याय है। संदेह शाश्वत है, वान्छित है। संदेह नहीं है तो उसे पैदा करो, वरण करो।”


“तुम सचमुच किसी निष्ठा से अपनी आत्मा को सींचते हो, तुम सचमुच किसी स्वप्न के साथ जीवित हो, इसका प्रत्यक्ष और असंदिग्ध प्रमाण है कि तुम किसी अन्य से कितनी घृणा करते हो।”


“जितनी ज़्यादा तारीख़ें, जितने लम्बे खिंचते मुक़द्दमे, उतने रुपए। धर्मस्थल के हर कमरे में, हर कोने में यह हिसाब उँगलियों पर निरंतर चलता रहता था। यह हिसाब क़ैदियों के पीछे लिथड़ते, हाँफते घर वाले नहीं जानते थे। वे दूसरा हिसाब लगाते कि अगली तारीख़ में कैसे, कहाँ से कितना रुपया लेकर आना होगा।”


“सत्य का लक्ष्य पाने के लिए संदेह ही पहली सीढ़ी है।”


“रचना संशय में ही जन्मती है, परिपक्व होती है। अर्जुन सिर्फ़ संदेह करता है, शंकाएँ रखता है और फिर कृष्ण उन सबके बीच से सत्य उसे ढूँढकर देते हैं।”


“दर्शनशास्त्र पढ़ा… रचनात्मकता के द्वंद्वों, संदेहों को पढ़ा। मुझे तब समझ में आया कि इस दुनिया में संदेहों के बीच कोई सत्य नहीं होता। संदेहों का घटाटोप सत्य को तलाशने के लिए नहीं, उसे छुपाने के लिए रचा जाता है।”


“यह पूरा जगत साफ़ तरह से दो हिस्सों में बँटा है। एक अखाड़े के अन्दर आपस में मरते-लड़ते ग़ुलामों का और दूसरा बाहर दर्शक-दीर्घाओं में जवान लड़कियों के स्तनों पर शराब पीते, उन्माद और उल्लास से हुँकारते हुए, मरते ग़ुलामों को देखने वालों का। एक दुनिया उनकी है जिनके हाथों में गँड़ासे हैं और एक दुनिया उनकी है जिन्होंने चुपचाप अपनी गर्दन इन गँड़ासों के नीचे रख दी है।”


“तुम परिस्थितियाँ पैदा करते चलो, लोग कीड़ों में बदलने को तैयार हैं।”


“रोटियों की प्रतीक्षा, फिर उन्हें किसी की हत्या करके पाना और फिर रोटियों की प्रतीक्षा।”


“प्रेतों की रहस्यमयी दुनिया में भय और संदेह के स्तूप रचते हुए, जिनके नीचे कहीं धर्मस्थल का, न्याय का, लोकतंत्र का वह छलावा होता है, जिसे पकड़ने के लिए बाहर नंगे बदन, घुटने मोड़कर बैठा, हथेलियाँ जोड़कर ठिठुरता हुआ, भारतीय संविधान में दी गई सर्वोच्च सत्ता वाला नागरिक होता।”


“क्यों हमने अपने लिए एक अदृश्य क्रूर अंतरात्मा के मायावी दैत्य का मिथ्या जगत रचा है जो हर पल हमें ही नोंचता है। हमारे ही रक्त से पोषित होता है।”


“अभी कुछ ठीक लगता है, कुछ बनाता हूँ, दूसरे ही क्षण सब व्यर्थ लगने लगता है।”


“यही तो रचना का सुख है। अंतहीन यात्रा। आकुलता से भरी, यात्ना से भरी। नितांत अकेली। कोई साथ नहीं… श्रेय नहीं… प्रेय नहीं…”


“हर रचना के बाद सबसे पहले अपने अन्दर उसकी हत्या करनी होती है, जिसने उसे रचा था। रचनाकार होने के बोध, गर्व की हत्या करनी होती है। जो रचा, उसकी भी हत्या करनी होती है। तभी अगली रचना का भ्रूण जन्म लेता है।”


“कृति जब ख़ुद अपनी हत्या करने का आह्वान करे, तो समझो अभी बहुत कुछ शेष है तुम्हारे अन्दर।”


“रचना के जगत में कृति की हत्या वो नहीं करते जो उससे संतुष्ट हो जाते हैं और किसी कूड़े के ढेर पर बैठकर पूरे जीवन जम्भाइयाँ लेते हैं।”


“संदेह से संदेह तक की यह अनवरत चलने वाली यात्रा ही शायद हमारा जीवन है।”


“जब ऐसा लगे कि कहीं शरण नहीं है, कहीं दुःख से मुक्ति नहीं है, तो किसी विराट के पास चले जाओ। वह तुम्हें अपने अन्दर समेट लेगा। मैं भी किसी विराट के पास जाऊँगा। नदी नहीं, वृक्ष नहीं, जंगल नहीं। इन सबकी सीमाएँ हैं। ऐसा विराट जिसका न आदि, न अंत, न जन्म, न मृत्यु… न क्षरण… न मरण… एक आलोकित हिरण्यगर्भ… एक अमृतकुण्ड? मृत्यु से विराट क्या है?”

 

प्रियम्वद की कहानी 'होंठों के नीले फूल'

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