सुजाता के उपन्यास ‘एक बटा दो’ से उद्धरण | Quotes from ‘Ek Bata Do’, a novel by Sujata
चयन: पुनीत कुसुम
“आवारा होने की चाह नदी को पुलों से नहीं, कूदकर पार करने के लिए बेचैन करती है।”
“बाहर जब कुछ नहीं बदलता तो तोड़-फोड़ भीतर ही मचनी होती है।”
“अपनी बात कहने में लोक-लाज का त्याग एक बड़ी चुनौती है और एक बड़ी उद्घोषणा।”
“अगर नाभि के ऊपर-नीचे की देह की अपनी-अपनी अलग सत्ता हो जाए तो एक देह में निवास करना कैसा होगा?”
“अपमान करने के कितने तरीक़े होते हैं घरेलू औरतों के पास। अच्छी औरतें! पूजा, व्रत, उपवास वाली। धरम-करम वाली। बेटे वाली। सच्चरित्रा।”
“इतना भलापन किसी-किसी में बचा होता है कि वह आपका भोलापन बचा ले जाता है।”
“मनुष्य जिसे बरतता है, उस पर अपने कितने निशान छोड़ देता है। सब निशान हमारी भाषा में अनुवाद किए जा सकते तो शायद हम सृष्टि के क्रूरतम प्राणी ठहराए जाते।”
“यह बाँहों का घेरा कितनी बड़ी कमज़ोरी है तुम्हें क्या कहूँ, सिद्धान्त! यह मुझे पंख समेट लेने को विवश कर देता है। अचानक जैसे रात घिर आती है और मैं अकेली हो जाती हूँ तब सिर्फ़ तुम पास होते हो… मेरी घबराहट प्यार में बदल जाती है। मेरी दलीलों के आगे तुम शान्त हो जाते हो तो बच्चों-सा प्यार उमड़ आता है मुझमें। मेरे जीवन में कुछ नहीं बदलता लेकिन मेरी सहने की शक्ति और बढ़ जाती है।”
“मुझे कभी पता नहीं चलेगा कि फ़र्क़ क्या है! मुझे प्यार किया जाता है या दुत्कारा जाता है…।”
“मेरा सारा संघर्ष उस पहचान के लिए था जिसे रौंदने की तमाम कोशिशें बचपन से लेकर अब तक होती रहीं।”
“बराबरी में कृतज्ञता तो क्या होती होगी लेकिन कभी आप अनजाने सिखा देते हो कि प्रेम में हम किस हद तक और क्या हो सकते हैं, और यही सीख दूसरे को कृतज्ञता से भर देती है।”
“आख़िर किसके लिए कमाते हैं—मुझे एक अश्लील सवाल लगा क्योंकि अपनी ज़िन्दगी तो किन्हीं और सवालों में ग़र्क़ हो रही थी। जैसे, मैं अपने लिए क्यों नहीं कमा सकती?”
“माँ को जबरन महान बनाने की खोखली मानवीयता में देखा ही नहीं तुम सबने कि एक औरत जिसका अपना कोई निजी जीवन, शौक़, महत्त्वाकांक्षाएँ नहीं रहीं… उसकी तमाम असुरक्षाएँ संतान में शरण नहीं लेंगी तो और क्या होगा?”
“मानो सारा संघर्ष सिर्फ़ इस बात का है कि मैं किसी के सहारे के बिना ज़िन्दा रह सकती हूँ कि नहीं। मानो सारे संघर्ष का नतीजा अन्ततः घर चलाए जाना ही है। अपने फ़ैसले ले सकने की हिम्मत नहीं।”
“अश्वेत अमरीकी उपन्यासकार और कवयित्री ज़ोरा नील हर्स्टन की पढ़ी हुई एक उक्ति अचानक याद आ गई— ‘अगर अपने दर्द के बारे में मौन रहोगे तो वे तुम्हें मार डालेंगे और कहेंगे तुम्हें आनन्द आया’।”
“एक औरत जब अपने लिए लड़ने को खड़ी होती है तो उसके पक्ष में खड़े रहने के बावजूद आप ख़ुद को उससे बाहर रखें, यह बेहतर है।”
“क्या मेरा उससे अपनी लड़ाई को समझने का आग्रह ज़्यादती है?”
“जाने कौन-सा आश्वासन था जो उसे मेरी देह में तलाशना था।”
“क्यों मैं ही दुनिया के योग्य बनने की कोशिश करती रहूँ, मेरे होने की क़ीमत दुनिया न चुकाए?”
“कोई झूठ है इसलिए मैं छुपाती हूँ ऐसा नहीं है, दुनिया इसे सुनने के लिए तैयार ही नहीं है, इससे यह छुपता है और फिर झूठ कहलाता है।”
“मर्द आगे बढ़े तो होशियार है और औरत तरक़्क़ी करे तो किसी मर्द की कृपा है।”
“हम एक-दूसरे को नीचे गिराकर प्यार नहीं कर सकते। एक प्यार में डूबा दिल जितना चाहो उतना झुकता है, इतना कि मनुष्य होने का सम्मान भी ताक़ पर रख देता है। यही। ठीक यही वक़्त होता है दूसरे के लिए उसे उठाने और यह एहसास दिलाने का कि उसके गिरने की क़ीमत पर कोई प्यार नहीं! अपना कितना स्वार्थ सिद्ध होता है न कि सामने वाला बिछता चला जा रहा है… छोड़ता जा रहा है अपना स्पेस… आप घेरे चले जा रहे हो… क़ब्ज़ा कर रहे हो धीरे-धीरे निरीह बनकर। उसी वक़्त तय करना होता है कि प्यार के नाम पर जिसे इतना गिराया है, कल को उसके बराबर में रहकर चलना कितना मुश्किल हो जाएगा।”
“अब मेरे पास अपनी चारदीवारी होगी, अपना जीवन। मैं कह सकूँगी कि—मेरे यहाँ ऐसे नहीं होता या मेरे यहाँ ऐसे होता है। अपनी थोड़ी-सी क्षमता में, ज़रा सी चौहद्दी में न किसी का एहसान होगा, न किसी का दमन।”
“भटकना चाहती थी तब तक कि जब तक अपने एकदम अकेले होने का पक्का यक़ीन न हो जाए…”
“मेरी आत्मा में कभी भय नहीं रहा, भय मेरी ट्रेनिंग में रहा।”
“मेरे लिए जीवन व्यक्तियों के बीच चयन की चुनौती में बदल जाए, यह सबसे बुरा होगा।”
“सब बदल जाता अगर पुराने विश्वासों को इतना खरा न मान लिया जाता कि वे कसौटी बन जाएँ।”
“जबकि ज़िन्दगी को एक यात्रावृत्त-सा लिखा जाना चाहिए, वह अक्सर ही एक रपट-सी दर्ज होती है।”
“जब मन की भाषा भूलती है तो देह की भाषा का ककहरा भी भूलने लगता है।”
“पुरुष स्त्री की देह है? उसे धारण कर लेती है तो जैसे मोह-माया में पड़कर सारी दुनिया से कट जाती है? प्रकृति से भी? वरना तो वह वही मिट्टी है, पानी, आग, आकाश और हवा। है न! नाना नहीं रहे तब नानी हम सबकी हो गईं। जब तक जीते थे नाना, वे उनके जंजाल में घुसी-मुसी रहतीं।”
“मुझे कुछ समय के लिए भूल जाओ ताकि मैं ख़ुद को याद कर सकूँ। जीवन की किताब इतने हाथों में इतनी लापरवाही से पड़ती है कि मुझ तक लौटती है तो देखकर रुआँसी हो जाती हूँ। अपने ही घर में किसी रात तड़पकर कहती थी—ओह, माँ मुझे घर जाना है… और वह घर कहीं नहीं होता था। माँ के घर भी नहीं।”
पेरुमल मुरुगन के उपन्यास 'पूनाची' से उद्धरण