राहुल सांकृत्यायन की किताब ‘तुम्हारी क्षय’ से उद्धरण | Quotes from ‘Tumhari Kshya’, a book by Rahul Sankrityayan

चयन: पुनीत कुसुम

 

“उन्हीं के ख़ून से मोटी हुईं ये तोंदें ग़रीबी के लिए उन्हें लांछित करती हैं। उनकी भाषा में इन ग़रीबों के लिए अलग शब्द हैं। ‘आप’ की तो बात ही क्या, ‘तुम’ भी उनके लिए नहीं इस्तेमाल किया जा सकता। ‘तू’, ‘रे’, ‘अबे’ से ही उन्हें सम्बोधित किया जा रहा है। बुरी से बुरी गालियों को उनके लिए इस्तेमाल करना अमीरी की शान है।”


“मेक्सिको और पेरू, तुर्किस्तान और अफ़गानिस्तान, मिस्र और जावा—जहाँ भी देखिए, मज़हबों ने अपने को कला, साहित्य, संस्कृति का दुश्मन साबित किया। और ख़ून-ख़राबा? इसके लिए तो पूछिए मत। अपने-अपने ख़ुदा और भगवान के नाम पर, अपनी-अपनी किताबों और पाखण्डों के नाम पर मनुष्य के ख़ून को उन्होंने पानी से भी सस्ता कर दिखलाया।”


“जो धर्म-भाई को बेगाना बनाता है, ऐसे धर्म को धिक्कार! जो मज़हब अपने नाम पर भाई का ख़ून करने के लिए प्रेरित करता है, उस मज़हब पर लानत!”


“जब आदमी चुटिया काट दाढ़ी बढ़ाने भर से मुसलमान और दाढ़ी मुड़ा चुटिया रखने मात्र से हिन्दू मालूम होने लगता है, तो इसका मतलब साफ़ है कि यह भेद सिर्फ़ बाहरी और बनावटी है।”


“सभी धर्म दया का दावा करते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान के इन धार्मिक झगड़ों को देखिए, तो आपको मालूम होगा कि यहाँ मनुष्यता पनाह माँग रही है।”


“हिन्दुस्तानियों की एकता मज़हबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मज़हबों की चिता पर। कौए को धोकर हँस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मज़हबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसका, मौत को छोड़कर इलाज नहीं।”


“विज्ञान ने हमारे अज्ञान की सीमा को कितनी ही दिशाओं में बहुत संकुचित किया है; और, जितनी ही दूर तक हमारे ज्ञान की सीमा बढ़ती गयी, वहाँ से ईश्वर और देवता वाला उत्तर हटता गया है। अब भी अज्ञान का क्षेत्र बहुत लम्बा-चौड़ा है, लेकिन आज के मनीषी उसे साफ़ अज्ञान के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, न कि ईश्वर और देवता के पर्दे में उसे छिपाकर।”


“अज्ञान का दूसरा नाम ही ईश्वर है। हम अपने अज्ञान को साफ़ स्वीकार करने में शर्माते हैं, अतः उसके लिए सम्भ्रान्त नाम ‘ईश्वर’ ढूँढ निकाला गया है। ईश्वर-विश्वास का दूसरा कारण मनुष्य की असमर्थता और बेबसी है।”


“अज्ञान और असमर्थता के अतिरिक्त यदि कोई और भी आधार ईश्वर-विश्वास के लिए है, तो वह है धनिकों और धूर्तों की अपनी स्वार्थ-रक्षा का प्रयास। समाज में होते हज़ारों अत्याचारों और अन्यायों को वैध साबित करने के लिए उन्होंने ईश्वर का बहाना ढूँढ निकाला है। धर्म की धोखाधड़ी को चलाने और उसे न्याय साबित करने के लिए ईश्वर का ख़याल बहुत सहायक है।”


“सच तो यह है कि यदि धनिक ही हमारे सदाचार के आदर्श माने जाएँ, तो ऐसे सदाचार का तो न रहना ही भला है।”


“सदाचार में जो जितना ही पतित है, वह उतना ही अधिक सुन्दर लच्छेदार शब्दों में उस पर व्याख्यान दे सकता है।”


“न्याय सस्ता और सुलभ नहीं है, बल्कि ज़बरदस्त शत्रु के मुक़ाबिले में वह दुनिया की सबसे महँगी चीज़ है। वह इतनी ख़र्चीली चीज़ है कि धनी आदमी हारते-हारते भी ग़रीब को उजाड़ देता है।”


“राज तो आजकल है थैली का। शासन पर अनुशासन उसका है जिसके पास धन है।”


“क़ाबिल दिमाग़ों को सरकारी बड़े-बड़े पदों पर सिर्फ़ इसलिए नहीं नियुक्त किया जाता कि वे अपनी योग्यता से जनता को फ़ायदा पहुँचाएँ, बल्कि इसलिए कि वे चिरकाल से स्थापित स्वार्थों को अक्षुण्ण बनाए रखने में सहायता करें।”


“इतिहास हमारे समाज की पुरानी बेड़ियों को मज़बूत करता है। इतिहास हमारी मानसिक स्वतन्त्रता का सबसे बड़ा शत्रु है। इतिहास हमारी पुरानी दुश्मनी और अनबनों को ताज़ा करता रहता है। सहस्राब्दियों से मनुष्यता का घोर शत्रु सिद्ध हुआ धर्म, बहुत कुछ इतिहास के आधार पर टिका है।”


“हमारे लिए सबसे अच्छा यही है कि अपने इतिहास को फाड़कर फेंक दें और संस्कृति से अपने को वंचित समझकर दुनिया की और जातियों से फिर क, ख पढ़ना सीखें।”


“गांधीजी अछूतपन को हटाना चाहते हैं, लेकिन शास्त्र और वेद की दुहाई भी साथ ले चलना चाहते हैं। यह तो कीचड़-से-कीचड़ धोना है।”


“समाज के ज़बर्दस्त बाँध में जहाँ सुई भर का भी छेद हो गया, वहाँ फिर उसका क़ायम रहना मुश्किल है।”


“हमारे नौजवान इस बँटवारे को अधिक दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सकते। नयी सन्तानों के लिए तो अच्छा होगा कि हिन्दुओं की औैलाद अपने नाम मुसलमानी रक्खे, और मुसलमानों की औलाद अपने नाम हिन्दू रक्खे; साथ ही मज़हबों की ज़बर्दस्त मुख़ालफ़त की जाए। सूरत-शकल के बनावटी भेद को भी मिटा दिया जाए। इस प्रकार मज़हब के दीवानों को हम अच्छी तालीम दे सकते हैं।”


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राहुल सांकृत्यायन
राहुल सांकृत्यायन जिन्हें महापंडित की उपाधि दी जाती है हिन्दी के एक प्रमुख साहित्यकार थे। वे एक प्रतिष्ठित बहुभाषाविद् थे और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में उन्होंने यात्रा वृतांत/यात्रा साहित्य तथा विश्व-दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किए। वह हिंदी यात्रासहित्य के पितामह कहे जाते हैं। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिन्दी साहित्य में युगान्तरकारी माना जाता है, जिसके लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक भ्रमण किया था। इसके अलावा उन्होंने मध्य-एशिया तथा कॉकेशस भ्रमण पर भी यात्रा वृतांत लिखे जो साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं।

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