‘Raakh’, a poem by Ashrut Sharma

धुँध छटती है तो साफ़ होता है इक चेहरा
साथ में साफ़ होती हैं
उससे जुड़ी महत्त्वाकाँक्षाएँ

निकलकर आते हैं कुछ ऐसे सच
जिन्हें स्वीकार कर पाना मुश्किल
उतना ही मुश्किल जितना पतंगे को
आग से बचा पाना है।

और फिर अंत में बच जाती है
बेनूर राख और स्याह सन्नाटा,

भयावह होता है वह मंज़र
पर ज़रूरी भी।

और ज़िन्दगी आगे बढ़ जाती है
भुला दिया जाता है वह सच
या फिर रहना सीख लिया जाता है
उसके साथ,

चल पड़ते हैं हम सब
निरंतरता के उसी क्रम में
जिसने सिर्फ़ रुखाई अदा की है,
बिना कोई सवाल किए
बिना कोई जवाब दिए…

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