और कुछ ठहरो
अभी मैं
व्यस्त हूँ।
मुझको अभी
आकार देना है
समय के पत्थरों को।
मैं नहीं यह चाहता
ये मूक पत्थर
आदमी के हाथ में
पथराव के दिन
बेज़ुबाँ हथियार हों।
चाहता हूँ
आदमी के वास्ते ये
स्नेह,
श्रद्धा से भरे आकार हों।
और ये प्रस्तर न खेलें
ख़ून की होली,
झुकें सर सामने इनके
वैयक्तिक आस्था ले
ये सिखाएँ आदमी को
स्नेह की बोली।
मुझे आकार देने दो।
अभी मैं व्यस्त हूँ
कुछ और ठहरो
प्रस्तरों को
आस्था की धार देने दो।
जनकराज पारीक की कविता 'और इंतज़ार'