‘Rajdhani Express’, a poem by Mukesh Kumar Sinha

बेशक मेट्रो सिटी में रहते हुए
शुरुआती दिन ही गुज़रे थे
पर, दौड़ती-भागती ज़िन्दगी में पॉज़ बटन को दबाकर
लौटा था गाँव को,
ओस से भीगे,
गेहूँ की सोंधी बालियों से लदे खेतों के बीच से
भाग रहा था पगडण्डियों पर

बेशक ये यात्रा हो चुकी है, अतीत में खोयी बात
पर यूँ ही स्मृतियों ने दिलाया याद कि
कैसे दरवाज़े पर ही दिखी
अम्मा-बाबा की आँखों की चमक
और फिर होने लगी बैठकी
अतीत में जुड़े दोस्तों के साथ
जिनके साथ बेरोज़गारी के दिनों में
खेले थे कंचे, तो
कभी असली क्वीन ढूँढते हुए
कैरम के क्वीन के लिए आज़माये थे हाथ

सोंधी हवा वाले अहसासों से भरे गाँव में
टूटी सड़कों पर जल जमाव से बचते हुए
गुज़रते हुए गलियों में,
अनेकों दलानों को पार करने के क्रम में
छूता रहा पैर,
पाता रहा आशीष बुढ़ाती हथेलियों के स्पर्श से
थी कोई चाची तो कोई दादी तो अन्य बुज़ुर्ग भी
ज़िन्दगी के आसमान को
फिर से सिकुड़ी हुई स्थिति में देखना
था बेहद अजब, महसूसता रहा भीगते हुए क्योंकि
कुछ भीगी नज़रों ने बताया दिन बदले
दूरियाँ अंतर्निहित हुईं पर
नहीं बदली अहमियत
भौजियों ने बनायी चाय, पूछ बैठीं
अबकी होली किसके चेहरे पोतोगे बबुआ
बड़े शहर की चढ़ गई है तुम पर चमक

एक मोड़ पर मिली
लाल फ़्रॉक वाली लड़की जिसके चहरे पर
अब फब रही थी गुलाबी साड़ी,
सीधे पल्ले में आगे से खोंसी हुई
शायद आयी थी अपने मायके
अनावृत कमर नहीं छिप पायी थी, उस आँचल में भी
तभी तो मुस्काते हुए तंज़ में कह गई
तुम काहे नहीं बदलोगे रे, नज़रें तो सही रखो अब

मुस्कुरायी कुछ वो प्रेमिकाएँ भी
जो गाँव से शहर जाते हुए रही कई बार साथ
कभी नदिया के पार की गूँजा-सी
तो लैला सी दिखी थी कभी
अब मुटल्ली सी हस्तियों में सम्भाल रही थीं
बच्चों के निक्कर और दूध की बोतलें
रिवाईंड-फ़ॉरवर्ड सा गुज़रता रहा
एक अलग ही विडियो रिकॉर्डर वाली दुनिया में

गुज़रता रहा शिवाला से तो
बैठा कई बार चौक के चाय वाले खोखे पर
बँटती रही एक बटा दो या दो बटा तीन की ग्लास,
हम सब के बीच
पूछते रहे सभी ज़िन्दगी की परेशानियाँ या
राजनीति के अंदर की बात
जैसे दिल्ली में हर कोई होता है सरकार के क़रीब
गलबहियाँ डाले हुए मैं भी पूछता रहा सबको
क्या कर रहे हो इन दिनों

कुछ उम्मीदों भरी नज़रों ने निहारा
कह ही बैठे, धीरे से
हमे भी बुलाओ न दिल्ली
गाँव मे नहीं रहा कोई काम
आख़िर कब तक गुज़ारें दिन

लौट रहा था
राजधानी एक्सप्रेस के दरवाज़े से लटका हुआ
कुछ न कर पाने की कसक के साथ
कह रहा था कई दोस्तों को एक साथ
भेजना अपना बायोडाटा
अबकी पक्का-पक्का करवाऊँगा कुछ काम
बेशक पुतलियों से झाँक रही थी
अपनी असली असलियत!

ख़ैर! ख़ुश होने के बहाने ज़रूरी हैं
कुछ मेरे लिए, कुछ मेरे दोस्तों के लिए!

यह भी पढ़ें:

कैलाश गौतम की कविता ‘गाँव गया था, गाँव से भागा’
धर्मवीर भारती की कहानी ‘मुरदों का गाँव’

Books by Mukesh Kumar Sinha:

 

 

Previous articleवसन्त
Next articleपिकासो के रंग पढ़ते हुए

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here