सोहर की पंक्तियों का रस
(चमड़े की निर्जनता को गीला करने के लिए)
नये सिरे से सोखने लगती हैं
जाँघों में बढ़ती हुई लालचे से
भविष्य के रंगीन सपनों को
जोखने लगती है
मगर अब वह नहीं है

उसका मर जाना पतियों के लिए
अपनी पत्नियों के पतिव्रता होने की
गारण्टी है

मैं सोचता हूँ और शहर
श्मशान के पिछले हिस्से के परिचित अँधेरे में
किसी ‘मरी’ की तरह बँधा खड़ा है
घण्टाघर में वक्त की कैंची
कबूतरों के पंख कतर रही है
चौराहों पर
भीड़ किसी अपभ्रंश का शुद्ध रूप जानने के लिए
उस प्रागैतिहासिक कथा की मुट्ठी
खोलने में व्यस्त है जहाँ रात
बनैले पशुओं ने विश्राम किया था। कविता में
कुछ लोग मनुष्य की आत्मा और गाँजे की
चिलम पर
अँगुलियों के निशान की शिनाख़्त कर रहे हैं
मगर वह-
अब वहाँ नहीं है
मौसम की सूचना के साथ वक़्त के काले हाशिये में
एक मौत दर्ज़ कर दी गयी है।
‘रा…ज…क…म…ल…चौ…ध…री’
और मैं वापस छूट गया हूँ
वर्तमान की बजबजाती हुई सतह पर
हिजड़ों की एक पूरी पीढ़ी लूप और अन्धा कूप के मसले पर
बहस कर रही है

आज़ादी- इस दरिद्र परिवार की बीससाला ‘बिटिया’
मासिकधर्म में डूबे हुए क्वाँरेपन की आग से
अन्धे अतीत और लँगड़े भविष्य की
चिलम भर रही है
वर्तमान की सतह पर
अस्पताल की अन्तर्धाराओं और नर्सों का
सामुद्रिक सीखने के बाद
‘स्वप्न-सुखद हो’ छाप तकियों को फाड़कर
मैं
मृत्यु और मृत्यु नहीं के बीच की सरल रेखा
तलाश करता हूँ मगर वहाँ
सिर्फ चूहों की लेड़ियों
बिनौलों और स्वप्नभंग की आतुर मुद्राओं की
मौसमी नुमाइश है
जिसके भीतर कविता
किसी छूटी हुई आदत को दुहराते हुए जीने की
गुंजाइश है और अन्धकार है
जिसने चीज़ों को आसान कर दिया है

मेरे देखते ही देखते
उसकी तसवीर के नीचे ‘स्वर्गीय’ लिखकर
फूलदान की बग़ल में
बुद्धिमानों का अन्धापन और अन्धों का विवेक
मापने के लिए
सफ़ेद पालतू बिल्ली
अपने पंजों के नीचे से कुछ शब्द
काढ़कर रख देती है
अचानक सड़कें
इश्तिहारों के रोज़नामचों में बदल जाती हैं
‘सिरोसिस’ की सड़ी हुई गाँठ
समकालीन कवियों की आँख बन जाती है
नफरत के अन्धे कुहराम में सैकड़ों कविताएँ
क़त्ल कर दी जाती हैं
मरी हुई गिलहरी की पीठ पर पहली मुहर
लगाने के लिए और युकलिप्टस का दरख्त
एक सामूहिक अफ़वाह में नंगा हो जाता है
-उसे ज़िन्दगी और ज़िन्दगी के बीच
कम से कम फ़ासला
रखते हुए जीना था
यही वजह थी कि वह
एक की निगाह में हीरा आदमी था
तो दूसरी निगाह में
कमीना था

-एक बात साफ़ थी
उसकी हर आदत
दुनिया के व्याकरण के ख़िलाफ़ थी

-न वह किसी का पुत्र था
न भाई था
न पति था
न पिता था
न मित्र था
राख और जंगल से बना हुआ वह
एक ऐसा चरित्र था
जिसे किसी भी शर्त पर
राजकमल होना था
-वह सौ प्रतिशत सोना था
ऐसा मैं नहीं कहूँगा
मगर यह तै है कि उसकी शख़्सियत
घास थी
वह जलते हुए मकान के नीचे भी
हरा था
-एक मतलबी आदमी जो अपनी ज़रूरतों में
निहायत खरा था
-उसे जंगल में
पेड़ की तलाश थी
-उसके पास शराब और गाँजा और शहनाई और औरतों के
दिलफ़रेब क़िस्से थे
-मगर ये सब सिर्फ़ उन पर्दों के हिस्से थे
जिनकी आड़ में बैठकर
वह कविताएँ बुनता था
…अपनी वासनाओं के अँधेरे में
वह खोया हुआ देश था

जीभ और जाँघ के चालू भूगोल से
अलग हटकर उसकी कविता
एक ऐसी भाषा है जिसमें कहीं भी
‘लेकिन’, ‘शायद’, ‘अगर’, नहीं है
उसके लिए हम इत्मीनान से कह सकते हैं कि वह
एक ऐसा आदमी था जिसका मरना
कविता से बाहर नहीं है
सैकड़ों आवाज़ें हैं
जिनके इर्द-गिर्द बैठकर
चायघरों में
मेरे दोस्त अगली शोकसभा का कार्यक्रम
तैयार कर रहे हैं
एक नये कोरस की धुन और मौत की रोशनी में चमकने का
साहस,
खोये हुए आदमी की हुलिया का इश्तिहार और एक रंगीन
खाली बोतल,
तीन दर्जन कागों की चुप्पी और एक काला रिबन,
औसत दर्ज़े की टेप-रिकार्डिंग मशीन और बच्चों के खेलने
की विलायती पिस्तौल का देशी मॉडल-
मेरे दोस्त चायघरों में
अगली शोकसभा का कार्यक्रम तैयार कर रहे हैं
मगर मैं उनमें शरीक नहीं होना चाहता
मैं कविताओं में उनका पीछा करना चाहता हूँ
इसके पहले कि वे उसे किसी संख्या में
या व्याकरण की किसी अपाहिज धारणा में बदल दें

मैं उन तमाम चुनौतियों के लिए
खुद को तैयार करना चाहता हूँ
जिनका सामना करने के लिए छत्तीस साल तक
वह आदमी अन्धी गलियों में
नफ़रत का दरवाज़ा खटखटाकर
कैंचियों की दलाली करता रहा
छत्तीस साल तक गुप्त रोगों के इलाज की जड़ी
ढूँढता रहा वेश्याओं और गँजेड़ियों के
नींद-भरे जंगल में

अपनी रुकी हुई किडनी के अन्धे दराज़ में
हाथ डालकर
कविताओं में बेलौस शब्द फेंकता रहा
और अन्त में –
अपने लिए सही टोपियों का चुनाव न कर सकने की –
हालत में बौखलाकर
अघोरियों की संगत में बैठ गया

मगर नहीं- अँधेरे घाटों पर बँधी हुई नावों को
अदृश्य द्वीपों की ओर खोलकर
कल उसे लोगों ने
गाँव की तरफ़ जाते हुए देखा था
उसके पैर वर्तमान की कीचड़ से लथपथ थे
उसकी पीठ झुकी हुई थी
उसके चेहरे पर
अनुभव की गहरी खराश थी :
‘पूरा का पूरा यह युद्ध-काव्य
मैंने ग़लत जिया है
ग़लत किया है मैंने इस
कमरे को समझकर
जहाजी बेड़ों का बन्दरगाह…
…इस अकाल बेला में
जम्बूद्वीप के प्रारंभ से ही यह अंधकार
बन गया था हमारा अन्तरंग संस्कार’

बार-बार
उसकी कविताओं में
बवासीर की गांठ की तरह शब्द
लहू उगलते हैं
और बार-बार मेरे भीतर टूटता है,
टूटता है और मुझे तैयार करता है
चुनौतियों के सामने।

उसका मरना मुझे जीने का सही कारण देता है
जबकि वे
याने कि मेरे दोस्त
पहियों और पाण्डुलिपियों की रायल्टी तय करने की
होड़ में
यह नहीं जानते
कि वह
फूलदानों, मछलियों, अँधेरों और कविताओं
को कौन-सा अर्थ
देने के लिए
किस जंगल
किसी समुद्र
किस शहर के अँधेरे में जाकर
ग़ायब हो गया है

उन्होंने, सिर्फ़, उसे
एक जलते हुए मकान की छत्तीसवीं खिड़की से
हवा में –
फाँदते हुए देखा है।

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Author’s Book:

सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'
सुदामा पाण्डेय धूमिल हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर सरीखे कवियों में एक है। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है।