जैसे रात और दिन के बीच चाँद
चिपका रहता है आसमान से,
वैसे ही आजकल
बड़ी, गोल बिंदी भाती है मुझे
मेरे दोनों भवों के बीचोंबीच…

उस चाँद के हिस्से तो दो ही रंग हैं
शुक्ल और कृष्ण,
मैंने, अपने चांद को कई रंग दिए हैं
इस रंग-बिरंगे चाँद की रोशनी में
बेरंग अंधेरे वाली नहीं,
रंग बिरंगी परछाइयां बनती हैं मेरी…
तब अक्सर, मैं मंत्रमुग्ध-सी
अपनी ही परछाइयों को देखती
पीछे-पीछे चलती हूँ उनके
समय के ताप से
छोटी-बड़ी होते देखती हूँ उन्हें,
मेरे ही लय में चहल कदमी करती हैं मेरी परछाइयाँ
खींच लेने का मन करता है उन्हें
कभी-कभी अपने ही भीतर, रूह तक…
इसलिए जब उस आसमान का चांद
छुप जाता है, अपने ही कृष्ण पक्ष में
तब मेरी सतरंगी परछाइयाँ
समा जाती हैं मुझ में कहीं गहरे…