‘Rangreza’, a poem by Ashok Singh ‘Ashk’

सुना है…
तुम रंगरेज़ हो
शहर को रंगों से सजाने का काम है तुम्हारा।
तो इस उदास नीरस शहर को
रंगते क्यों नही।

स्साब…
मेरे रंग कब से घुले रखे है रंगदान में
ब्रश बार-बार उझल आता है थैले से।
पर इस गुलशन में एक नया सुल्तान आया है,
जो रोज़-रोज़ नये आदेश दे रहा है।
अब उनका नया आदेश आया है,
शहर को एक ही रंग से रंगने का।
भला कभी बग़ीचे में एक रंग के फूल खिलते हैं!

कभी देखा है आसमान को एक तरह के परवाज़ों से भरा?
कभी देखा है नदी को एक तरह के लोगों के लिए?
कभी देखा है मेले में एक तरह के लोगों को, एक जैसे…

इस शहर की सुंदरता…
आसमान में इंद्रधनुष सजने से है,
नदी में सभी हाथ पहुँचने से है,
समाज में विविधता की सभ्यता बनने से है,
और इस बग़ीचे की सुंदरता गुलदान नहीं,
खुला बाग़बान होने से है।

बस इन रंगों को
मेरे ब्रश को
मुझे और इस नीरस शहर को
अब इंतज़ार है एक सुबह की
जिसमें
सभी रंग हों,
सुनहरा इंद्रधनुष हो
समय के साथ बहती सभ्यता हो।

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अशोक सिंह 'अश्क'
अशोक सिंह 'अश्क' काशी हिंदू विश्व विद्यालय वाराणसी मोबाइल न० 8840686397, 9565763779 ईमेल [email protected] com

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