वह एक वाहियात दिन था। सब कुछ शांत था—यहाँ, इस कमरे में जहाँ किसी के चलने की भी आवाज़ नहीं सुनायी पड़ सकती थी, इतने मोटे ग़लीचे बिछे थे, दीवारें जहाँ चिकनी, संगमरमर की-सी शांतिमय, तापमान जहाँ स्थिर, शरीर के अनुकूल था और सबसे बड़ी बात, धूल जहाँ नहीं थी, आप चाहें तो मेज़ पर आस्तीन रख सकते थे। वहाँ नीचे के कमरों की मेज़ों की तरह नहीं कि उन पर लोग खाने की जूठन पोंछकर रजिस्टर खोल लेते हैं, पर उस कमरे के बावजूद वह दिन एक वाहियात दिन था।
एक-एक करके चालीस आदमी उस कमरे में आए। चालीस : अलीबाबा : खुल जा सम-सम। हाँ, एक दरवाज़ा भी उस कमरे में था आने के लिए और वही जाने के लिए भी। एक और दरवाज़ा था, उसको खोलने से कोई कहीं जा नहीं सकता था—जो जाता उसे छोटी या बड़ी हाजत रफ़ा करके वापस आना पड़ता। पर उस पर कहीं लिखा न था कि यह कहाँ का दरवाज़ा है। हर बार जब कोई आदमी वापस जाने लगता तो ग़लती से यही दरवाज़ा खोलने लगता और हम पाँच आदमी जो उस कमरे में बैठे थे, असली दरवाज़े की ओर उँगली उठाकर एक साथ चिल्लाते, “रास्ता इधर से है।”
दोनों दरवाज़े बिल्कुल एक-से थे। अगर हम पाँच आदमी दिन-भर भी उस कमरे में बैठै रहते और सचमुच एक न एक हाजत रफ़ा करके उठते रहते तो भी दिन-भर में मिलाकर चालीस बार वह दरवाज़ा खोलते। मगर उस दिन वह चालीस बार खुला। और एक भी आदमी उसके भीतर नहीं गया। उसका आधा खुलना होता कि हम पाँचों वे ही शब्द चिल्ला पड़ते जो ऊपर कहे गए हैं। चमचमाता हुआ कमोड ज़रा देर को दिखायी देता, फिर चूँ करके दरवाज़ा बंद हो जाता और उसको खोलनेवाला सिर झुकाए असली दरवाज़े की ओर बढ़ जाता।
कोई बात थी कि जब हम पाँचों आदमी अपने-अपने सवाल पूछ चुके होते तो जवाब देनेवाला कमरे से छूटकर जाने की इतनी जल्दी में होता कि वह सबसे पहले सामने पड़नेवाले दरवाज़े से निकलना चाहता। पर वह तो वही दरवाज़ा था जिसमें कमोड दिखायी देता था।
जब कई बार ऐसा ही हो चुका तो हम पाँचों हँसने लगे। एक ने कहा, “क्या कम्पनी ने यह दरवाज़ा इम्तहान लेने के लिए लगवाया है?”
वह शायद सोचता था कि यह भी व्यक्तित्व की परीक्षा का एक अच्छा उपाय है। आदमी अगर नौकरी चाहता है तो कहीं इतना बदहवास तो नहीं है कि कमरे में आने के बाद भूल जाए कि किस दरवाज़े से आया था।
दूसरे ने कहा, “हा हा हा हा!”
तीसरे ने कहा, “नहीं, लगवाया तो इसलिए नहीं गया था। परन्तु मैं आपका मतलब समझ गया। आगे से हम इस पर भी पाँच नम्बर रख सकते हैं।”
चौथे ने कहा, “मगर नम्बर किसे मिलेंगे? उसी को न जो सही दरवाज़े से जाएगा?”
इस पर मैंने कहा, “नहीं, उसे जो पेशाबघर का दरवाज़ा खोलेगा और जब हम लोग कहेंगे, नहीं, नहीं, रास्ता इधर से है तो वह कहेगा, मुझे मालूम है। मैं पेशाब करने जा रहा हूँ।”
यह बात किसी को पसन्द नहीं आयी। उस कमरे में सिर्फ़ प्रधान प्रबन्धक पेशाब कर सकते थे। यह भी विवादास्पद था कि अगर प्रधान प्रबन्धक, सहायक प्रधान प्रबन्धक और प्रमुख उपसहायक प्रधान प्रबन्धक विचार-विमर्श करने बैठे होते और प्रमुख उपसहायक प्रधान प्रबन्धक को पेशाब लगता तो वह उठकर बाहर जाते या उसी पेशाबख़ाने में जाते जो प्रधान प्रबन्धक के लिए निश्चित था। सहायक प्रधान प्रबन्धक शायद इजाज़त लेकर चले भी जाते, लेकिन प्रमुख उपसहायक प्रधान प्रबन्धक शायद नहीं जाते। वह बाहर जाते—उतनी दूर जाना उनके नाम जितना ही लम्बा रास्ता तय करने के बराबर होता, पर वह जाते अपने कमरे में, उससे जुड़े हुए अपने पेशाबघर में।
मेरी बात किसी को पसन्द नहीं आयी थी। मैं मन-ही-मन निराश हुआ। कोई यह विचार पसन्द करता तो आगे मैं यह शर्त रखता कि पूरे नम्बर उसे नहीं मिलेंगे जो सिर्फ़ कहेगा कि मैं पेशाब करने जा रहा हूँ बल्कि उसे मिलेंगे जो वहाँ जाकर वाक़ई पेशाब करेगा।
मैं ऐसा कह पाता तो बाक़ी चारों इसमें संशोधन कर सकते थे। मसलन एक नम्बर इस बात को बताते कि उसके पेशाब की आवाज़ सुनायी पड़ी या नहीं और इसका कि उसने बटन भीतर ही बन्द किए या बाहर आकर और पैजामा चढ़ाकर पेशाब करने पर सब नम्बर काट लेना तय हो सकता था।
इसके बजाय वे बहस इस बात पर करने लगे कि यदि अभी तक हमने यह चीज़ इम्तहान में नहीं रखी तो बाक़ी लोगों को इसके नम्बर देकर हम अन्याय करेंगे। इसके पहले सभी को अंग्रेज़ी बोलने पर नम्बर दिए गए थे। अंग्रेज़ी बोलने और पेशाबघर का दरवाज़ा पहचानने में कोई समतुल्यता नहीं है, इतना न्याय तो हम पंच जानते ही थे।
उस इमारत में हम पाँच बड़े अफ़सर थे। हम सबके कमरे अलग-अलग थे। सबके लिए दोपहर में अलग खाना परसा जाता था। वह कैंटीन के खाने से कहीं ज़्यादा उम्दा होता था। मगर इससे यह निष्कर्ष न जाने किस तरह निकल आया था कि हम सबके लिए पेशाब और पाख़ाने के कमरे भी अलहदा होने चाहिए जबकि वहाँ हम जो कुछ करते, वह उम्दा खाने के बावजूद वही होता जो कैंटीन में मोटा खानेवाले करते। मुझे सूझा कि अगर कभी कोई आन्दोलन इस इमारत में समता के लिए हो तो वह सबको एक-सा खाना देने की माँग पूरी हो जाने पर भी सफल न होगा। ऐसे सभी आन्दोलन क्यों बेकार हो जाते हैं? इस पर सोचते-सोचते मैं इस नतीजे पर आया कि इसलिए कि वे सबके लिए एक पेशाबघर की माँग नहीं करते।
हम लोग अपनी फ़ाउंटेनपेन बनाने की कम्पनी में सेलमैनों की नियुक्ति के लिए आदमी छाँट रहे थे। उस समय हमारे सामने एक लड़का बैठा हुआ था जिससे पूछा जा रहा था कि वह यह नौकरी क्यों करना चाहता है। बाक़ी सवाल जो सबसे पूछे जाते, वे पूछे जा चुके थे, जैसे—तुम्हारे शौक़ क्या हैं? हर सवाल पर उम्मीदवार इस तरह अपना व्यक्तित्व निचोड़कर रख देता जैसे इसी के ठीक उत्तर पर उसे नौकरी मिल जाएगी। ऐसा कुछ था नहीं। नौकरी मिलना जिस बात पर निर्भर था, उसे कोई नहीं जानता था। लिखित इम्तहान में पचास से कम नम्बर जो लोग लाए थे, उनके लिए तो एक यही सवाल काफ़ी था—तुम यह नौकरी क्यों करना चाहते हो? इसके जवाब में जिसने कोई ऊँचा कारण बताया, वह गया। मसलन, मैं क़लम बेचकर ज्ञान का प्रसार करना चाहता हूँ। जिसने यह कहा कि इसलिए कि मुझे नौकरी की ज़रूरत है, उससे अगला सवाल यह होता था कि तो फिर यही क्यों? और उसके पास कोई साधारण जवाब होता ही नहीं था, वह हमेशा कोई बड़ा कारण बताना चाहता था। और हम जानते थे कि इसी से वह मारा जाएगा। हम यह भी जानते थे कि किसी की हिम्मत यह कहने की न पड़ेगी कि वह यह नौकरी इसलिए चाहता है कि वह ख़ाली है—वह भी और नौकरी भी—जबकि असलियत एकदम यही थी और इससे बढ़िया कोई कारण किसी के पास नौकरी के लिए साक्षात्कार देने का हो ही नहीं सकता था।
लड़के ने जवाब में कहा कि वह असल में तो वकालत करना चाहता था पर वकालत उससे चलेगी नहीं। यह कहकर उसने अपने को फँसा लिया। उससे फ़ौरन पूछा गया कि जब वह मुवक्किल की पैरवी नहीं कर सकता तो क़लम की कैसे करेगा? इस पर वह घबराहट के मारे काँपने लगा और उसने कहा—किसी तरह कर लूँगा। मैंने एक क्षण को कल्पना की कि लड़का मजमे में खड़ा कह रहा है—भारत कम्पनी का फ़ाउंटेनपेन ख़रीदिएगा… यह हमेशा सत्य लिखता है…।
इसके बाद एक और लड़का आया। इसके ख़ानदान में दुकानदारी थी। इसने कुर्सी पर बैठकर ऐसे देखा जैसे सेलमैन हो ले तो कल वह इस कम्पनी को ही ख़रीद लेगा। प्रधान प्रबन्धक अपने लिए इतना बड़ा ख़तरा देखकर भी उसी लड़के से सबसे ज़्यादा ख़ुश हुए। उन्होंने उससे उसके पिता का हाल-चाल पूछा और उसे चाय पिलायी। मुझे तो शक हुआ कि शायद वह उसे अपने पेशाबघर के इस्तेमाल का भी न्योता देनेवाले हैं, पर नहीं दिया।
एक-एक करके कई लोग और आए। सभी विश्वविद्यालय में साहित्य, विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास या क़ानून—इनमें से कुछ-न-कुछ पढ़ चुके थे। नौकरी की शर्त ही यही थी। कुछ शायद अपने सबसे बढ़िया कपड़े पहनकर आए थे। पर कपड़े नहीं जनाब, मैं बाक़ी चारों निर्णायकों से कहना चाहता था, जूते देखिए, जूते। उन्हीं से आदमी के असली चरित्र का पता चलता है। एक के जूते बताते थे कि वह बहुत ग़रीब घर का है, हालाँकि उन पर पॉलिश थी। एक के जूते बताते थे कि उसके पास कई जोड़े जूते और भी हैं—और कपड़े वह बिल्कुल मामूली पहने था—देखिए न, जितने ख़ानदानी पैसेवाले होते हैं, अक्सर मामूली कपड़े पहनना चाहते हैं… मगर उनके जूते…।
दो-एक ने नौकरी क्यों करना चाहते हैं, इसका कारण बताया कि उन्हें अपने बूढ़े बाप का हाथ बँटाना है। तीनों लड़कों ने कहा कि सीधी बात यह है कि हमें भी तो कोई रोज़ी चाहिए, नहीं तो भाई के मत्थे कब तक खाते रहेंगे। ये सब कारण काफ़ी नहीं थे। इनसे यह सिद्ध नहीं होता था कि ये लोग कमाल दिखाएँगे।
एक ने तो कोई कारण नहीं बताया। वह उठकर खड़ा हो गया और कहने लगा, सर, मुझे नौकरी दे दीजिए, आपकी बड़ी मेहरबानी होगी, सर!
सबसे विशेष बात जो हमारे प्रधान प्रबन्धक ने बाद में बतायी, यह थी कि कोई भी उम्मीदवार यह नहीं बता सका कि पश्चिम जर्मनी में जो टेलीविज़न टावर है, वह कितना ऊँचा है। प्रधान प्रबन्धक इसी वर्ष उस पर चढ़कर चारों तरफ़ देख आए थे और उसके ऊपर बने रेस्तराँ की विचित्रताएँ हम लोगों को बताया करते थे। हम लोग शैक, जूते, कपड़े, अंग्रेज़ी इन सभी की जाँच करते रहे। और एक स्वर में ‘रास्ता इधर से है’ बताते रहे। शाम होने को आयी। पास उम्मीदवारों की सूची बनाने का वक़्त आ गया। प्रधान प्रबन्धक के सचिव ने सबके नम्बर सामने लाकर रख दिए।
सूची में नम्बर जोड़ने पर मालूम हुआ कि हम लोग किसी को नहीं ले सकते। सत्तर से ऊपर नम्बर लानेवाले को ही लेना तय हुआ था। इतने किसी के नहीं थे। इसलिए हम लोगों ने फिर से विज्ञापन देने का फ़ैसला किया। आज के अनुभव से सीख लेकर इस बार हम लोगों ने विज्ञापन में एक शर्त रख दी कि जो लोग कहीं नौकरी न कर रहे हों, वे अर्ज़ी न दें। इसके कई फ़ायदे हुए। एक तो यही कि हम लोगों को ‘रास्ता इधर से है’ नहीं कहना पड़ा। उम्मीदवार आते और आते ही अपने शऊर और सलीक़े से जता देते कि उन्हें यह बात मालूम है कि प्रधान प्रबन्धक के कमरे से जुड़ा हुआ एक पेशाबघर है। हाँ, इससे सारा कार्यक्रम नीरस ज़रूर हो गया था। अन्त में हम लोगों ने उस आदमी को चुना जिसने साक्षात्कार के बीच में एकाएक पूछा था—सर, मैं ज़रा बाहर पेशाब कर आऊँ, सर!
रघुवीर सहाय की कविता 'दे दिया जाता हूँ'