‘Re Jaag Yuva Tu Jaag Zara’,
a poem by Tushar Pandey

रे जाग युवा तू जाग ज़रा

नयनों में है नीर भरा
उर भीतर है पीर भरा
खण्डित नभ, विक्षिप्त मेघ
भय से कम्पित सम्पूर्ण धरा
नेतृत्व तू कर ना भाग ज़रा
रे जाग युवा तू जाग ज़रा

मन में कितनी व्याकुलता है
पीड़ित कितनी मानवता है
द्वेष-क्रोध है जन-जन में
भाषा में सबकी कटुता है
तू छेड़ प्रेम का राग ज़रा
रे जाग युवा तू जाग ज़रा

कट्टरता विध्वंसक इस छल को
सत्ता पर क़ाबिज़ धन-बल को
कर ध्वस्त भ्रष्ट विनाशक को
कर स्वच्छ तू अब गंगा जल को
बिखरा दे संधि पराग ज़रा
रे जाग युवा तू जाग ज़रा

हा हा उठती इस ज्वाला को
संकुचित सोच विष हाला को
आडम्बर के पोथे कर छिन्न-भिन्न
स्थापित कर विज्ञ मधुशाला को
कर शांत यज्ञ की आग ज़रा
रे जाग युवा तू जाग ज़रा!