Editors' Picks
अंधेरे के नाख़ून
एक छोर से चढ़ता आता है
रोशनी को लीलता हुआ एक ब्लैक होल,
अंधेरे का नश्तर चीर देता है आसमान का सीना,
और बरस पड़ता है बेनूर...
लाठी भी कोई खाने की चीज़ होती है क्या?
हमारे देश में लाठियाँ कब आयीं
यह उचित प्रश्न नहीं
कहाँ से आयीं
यह भी बेहूदगी भरा सवाल होगा
लाठियाँ कैसे चलीं
कहाँ चलीं
कहाँ से कहाँ तक चलीं
क्या पाया...
कुछ समुच्चय
स्मृति की नदी
वह दूर से बहती आती है, गिरती है वेग से
उसी से चलती हैं जीवन की पनचक्कियाँ
वसंत-1
दिन और रात में नुकीलापन नहीं है
मगर...
हम मारे गए
हमें डूबना ही था
और हम डूब गए
हमें मरना ही था
और हम मारे गए
हम लड़ रहे थे
कई स्तरों पर लड़ रहे थे
हमने निर्वासन का दंश...
तुम्हारे धर्म की क्षय
वैसे तो धर्मों में आपस में मतभेद है। एक पूरब मुँह करके पूजा करने का विधान करता है, तो दूसरा पश्चिम की ओर। एक...
लाखन सिंह की कविताएँ
1
जीना किसी सड़ी लाश को खाने जैसा
हो गया है,
हर एक साँस के साथ
निगलता हूँ उलझी हुई अंतड़ियाँ,
इंद्रियों से चिपटा हुआ अपराधबोध
घिसटता है
माँस के लोथड़े...
शिवम तोमर की कविताएँ
रोटी की गुणवत्ता
जिस गाय को अम्मा
खिलाती रहीं रोटियाँ
और उसका माथा छूकर
माँगती रहीं स्वर्ग में जगह
अब घर के सामने आकर
रम्भियाती रहती है
अम्मा ने तो खटिया...
युद्ध-विराम
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है।
अब भी
ये रौंदे हुए खेत
हमारी अवरुद्ध जिजिविषा के
सहमे हुए साक्षी हैं;
अब भी
ये दलदल में फँसी हुई मौत की मशीनें
उनके...
जब तुम समझने लगो ज़िन्दगी
वो जहाँ पर मेरी नज़र ठहरी हुई है
वहाँ ग़ौर से देखो तुम
तुम भी वहाँ हो मेरे साथ
मेरे दाएँ हाथ की उँगलियों में
उलझी हुई हैं...