तुमने कब चाहा
रिश्तों की तह तक जाना
देह तक ही सीमित रहा
तुम्हारा मन
देह को नापती तुम्हारी आँखों ने
देखना चाहा ही नहीं
मन के घुमड़ते ज्वार
देह को नदी समझने की भूल
तुम्हारे समय की पहली और आख़िरी
भूल रही होगी शायद
इसे पार करने की सोच जम गयी है
गहरी काई बनकर
नदी की तलहटी पर
और पाँव रखने से अब
घबराने लगे हो तुम भी
फिसलन का एक गहरा डर
घर कर गया है
तुम्हारे मन में भी
लेकिन मैंने डाल दी है
रेत
देह की नदी पर
जिस पर उभरते जायेंगे
निशान तुम्हारे पैरों के
जब-जब पार करना चाहोगे
पाँव धरकर…
यह भी पढ़ें:
विशाल अंधारे की कविता ‘दो जिस्म’
ऑक्टेवियो पॉज़ की कविता ‘दो जिस्म’
मीराजी की नज़्म ‘जिस्म के उस पार’
राहुल बोयल की कविता ‘ज़ख्मी गाल’
अनुराधा अनन्या की कविता ‘अगर तस्वीर बदल जाए’
[…] वंदना कपिल की कविता ‘रिश्तों की रेत… राहुल बोयल की कविता ‘ज़ख़्मी गाल’ ऑक्टावियो पॉज़ की कविता ‘दो जिस्म’ […]
बहुत सुंदर