मौन की भाषा समझ
चुपचाप रह,
मन व्यथा को खोल मत
चुपचाप सह!
बन शिखर
पर इस धरा से मेल रख,
बाँट अमृत, खुद गरल का स्वाद चख।
जलधि मत बन हो नदी-
चुपचाप बह!
वक्त की
आवाज है तू, चेतना बन,
हर दुखी मन की तरल संवेदना बन
हौसला दे ‘साथ हैं‘-
चुपचाप कह!
मत बुझा
दीपक किसी का, सूर्य बन,
इस जगत की रोशनी का तूर्य बन
बर्फ होकर आग-सा
चुपचाप दह!