मैं कभी नहीं रोया
मुझे किसी ने रोते हुए देखा भी नहीं
रुदन साहस माँगता है
मैं अपनी आँखों को
हमेशा कातर असहजता के
ढाई इंच नीचे की स्मिति से
ढाँपता रहा

जब भी रोने की बारी आयी
मैं सबसे पीछे खड़ा रहा
ताकि मैं रोते चेहरों के बजाय
उनकी पीठ देख सकूँ

मुझे जब भी आक्रंदों की
आर्द्रता से भीगे हुए तकिए मिले
कानों में उन तकियों की रूई भर ली
ताकि असह्य वेदनाएँ मुझे
बहरा न कर दें
पता नहीं क्यों मानता आया कि
सुनने के लिए अभी बहुत कुछ शेष है

मैं हमेशा अपने निकटतम लोगों से
इतनी दूरी पर रहा कि
मैं किसी को रुला न दूँ
या कि मेरे रुदन का संताप
किसी का पराया दुःख न बन बैठे

आप जितने चेहरे देखेंगे
ग़ौर कीजिएगा
हस्तरेखाओं से ज़्यादा गहरी रेखाएँ
आपको चेहरों पर मिलेंगीं

व्यथा यह है कि
न हमें हाथ पढ़ने आते हैं, न ही चेहरे

रुदन की व्यंजनाएँ
चेहरों पर
पहले सीलन बनती हैं
फिर दरारें

दरारें ऐसी कि पूरबिया बयारों से
आँगन हर साल खाट पकड़ लेता है
उड़ते हुए भुए के स्पर्श से
दीवार से चटककर दो चार ईंटें
हर बार गिर जाती हैं

मुझसे अगर आप पूछेंगे कि
मैं अपने जीवन में कितनी दफ़ा रोया
तो इसके बारे में
मैं आपको केवल इतना बता सकता हूँ कि
मैं रोते हुए कभी पकड़ा नहीं गया।

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आदर्श भूषण
आदर्श भूषण दिल्ली यूनिवर्सिटी से गणित से एम. एस. सी. कर रहे हैं। कविताएँ लिखते हैं और हिन्दी भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ है।

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