साग-मीट बनाना क्‍या मुश्किल काम है! आज शाम खाना यहीं खाकर जाओ, मैं तुम्‍हारे सामने बनवाऊँगी, सीख भी लेना और खा भी लेना। रुकोगी न? इन्‍हें साग-मीट बहुत पसंद है। जब कभी दोस्‍तों का खाना करते हैं, तो साग-मीट ज़रूर बनवाते हैं। हाय, साग-मीट तो जग्‍गा बनाता था। वह होता, तो मैं उससे साग-मीट बनवाकर तुम्‍हें खिलाती। उसके हाथ में बड़ा रस था। वह उसमें घी डालता, लहसुन डालता, जाने क्‍या-क्‍या डालता। बड़े शौक़ से बनाता था। मेरे तो तीन-तीन डिब्‍बे घी के महीने में निकल जाते हैं। नौकरों के लिए डालडा रखा हुआ है, पर कौन जाने, मुए हमें डालडा खिलाते हों और ख़ुद अच्‍छा घी हड़प जाते हों। आज के ज़माने में किसी का एतबार नहीं किया जा सकता। मैं ताले तो नहीं लगा सकती। मुझसे ताले नहीं लगते। मैं कहती हूँ, खाते हैं तो खाएँ। कितना खा लेंगे! मुझसे अपनी जान नहीं सम्भाली जाती, अब ताले कौन लगाए? यह मथरा सात रोटियाँ सवेरे और सात रोटियाँ गिनकर शाम को खाता है। बीच में इसे दो बार चाय भी चाहिए, और घर में जो मिठाई हो, वह भी इसे दो। पर मैं कहती हूँ, “टिका हुआ तो है, आजकल किसी नौकर का भरोसा थोड़े है। किसी वक़्त भी उठकर कह देते हैं—मैं जा रहा हूँ।”

ये भी मुझे यही कहते हैं, “कुत्ते के मुँह में हड्डी दिए रहो तो नहीं भूँकेगा। सत्तर रुपये पर इसे रखा था, अब सौ लेता है। फिर भी इसके तेवर चढ़े रहते हैं।” पर जग्‍गा बड़ा नेक आदमी था। बड़ा नमक-हलाल। वह नौकर थोड़े ही था, वह तो घर का आदमी था। वह इन्‍हें बहुत मानता था। एक बार ये कुछ कह दें, तो मजाल है, वह पूरा न करे। बड़ा वफ़ादार था। ये भी तो नौकर को नौकर नहीं समझते। घर का आदमी समझते हैं। जब कभी सौ-पचास की उसे ज़रूरत होती, झट-से निकालकर दे देते। कहीं कोई लिखत नहीं, कोई हिसाब नहीं।

जग्‍गा बीवी ब्‍याहकर लाया, तो दो जोड़े और एक गर्म कोट सिलवाकर दिया। मैं इनसे कहूँ, “जी, क्‍यों पैसे लुटाते हो। नौकर किसी के अपने नहीं होते। इसी को पाँच रुपये कहीं से ज़्यादा मिल गए, तो यह पीठ फेर लेगा।” ये कहते, “तू अपना काम देख, पानी निकालने से कुएँ ख़ाली नहीं होते। यह हमें साग-मीट खिलाता रहे, मुझसे जो माँगेगा, दूँगा। इस-जैसा बावर्ची तो शहर-भर में नहीं होगा।”

मुझे वह दिन याद है, जब जग्‍गे को लेकर आए थे। बाहर से ही आवाज़ लगायी, “ले समित्रा, तेरे लिए नौकर ले आया हूँ। तब भी ये मुझसे कहें, इसे चाय के साथ खाने के लिए ज़रूर कुछ दे दिया कर। एक मठरी ज़्यादा दे देने से तेरा नुक़सान नहीं होगा। इसे घर से मोह पड़ गया, तो वर्षों तक तेरे साथ बना रहेगा। तेरा सारा काम कर दिया करेगा।”

और जग्‍गा भी ऐसा, जैसे जंगल से हिरन पकड़ लाए हों। बड़ी-बड़ी उसकी आँखें, हिरन की तरह हैरान-सा देखता रहता। वही बात हुई। जग्‍गे को मोह हो गया। पर यह छोटी उम्र में होता है। बड़े-बड़े मुस्टण्डे नौकर, जो सड़कों पर घूमते हैं, इन्‍हें क्‍या मोह होगा। बच्‍चे कोमल होते हैं, जैसा सिखाओ, सीख जाते हैं। जानवर सीख जाते हैं, तो ये क्‍यों न सीखेंगे? इन्‍हें बस में करने के बड़े ढंग आते हैं।

तुम्‍हें जैकी याद है ना? हाय, तुम्‍हें जैकी भूल गया है? जैकी कुत्ता, जिसे ये एक दोस्‍त के घर से उठा लाए थे। सभी को भूँकता फिरता था। पर इन्‍होंने उसे ऐसा हाथ में किया, इन्‍हीं के क़दमों में चक्‍कर काटता फिरता था। उसे भी ऐसा ही मोह पड़ गया था इनके साथ। मैं तुम्‍हें क्‍या बताऊँ। दफ़्तर से इनके लौटने का वक़्त होता, तो जैकी के कान खड़े हो जाते। बाहर सारा वक़्त दसियों मोटरें दौड़ती रहती हैं, पर जिस वक़्त इनकी मोटर आती, तो इसे झट-से पता चल जाता और भागकर बाहर पहुँच जाता। सीधा गेट पर जा पहुँचता। वहीं पर एक दिन अपनी ही गाड़ी के नीचे कुचल गया। यह मोह बहुत बुरी चीज़ है।

ये काँटे कहाँ से बनवाए हैं? बड़े ख़ूबसूरत हैं। हीरे कितने के आए? सच्‍चे हैं ना? आजकल हर चीज़ को आग लगी हुई है। मैंने यह नाक की लौंग बनवायी, इतना छोटा-सा हीरा इसमें लगा है, पर पूरे सात सौ खुल गए। अब तो मुझे पहनते भी डर लगता है। जब जग्‍गा था, तो मेरी ज़ेवरों की पिटारी भी बाहर पड़ी रहती थी। कभी दो पैसे भी इधर-उधर नहीं हुए। ऐसी भुलक्‍कड़ हूँ, कभी चेन ग़ुसलख़ाने में रह जाती, कभी तिपाई पर रह जाती, जग्‍गा उठाकर दे देता। पर अब तो ऐसे नौकर आए हैं, हरे राम, मैंने सारे ज़ेवर उठाकर बैंक में रख दिए हैं।

मथरा से पहले एक नौकर था, मंसा नाम का। ऊपर से बड़ा शरीफ़। लगता, उसके मुँह में ज़बान ही नहीं है। पर एक दिन मैं पिछवाड़े की तरफ़ से घर आ रही थी, तो क्‍या देखती हूँ, मंसा छत पर खड़ा है और गली में खड़े आदमी को ऊपर से एक-एक करके कपड़े फेंक रहा है। मुझे देखते ही दोनों चम्पत हो गए। मंसा गली में कूद गया और वहीं से भाग गया। आजकल नौकर रखने का ज़माना नहीं है। मैं तो घर के बाहर भी जाऊँ, तो डर लगा रहता है कि पीछे नौकर कहीं घर की सफ़ाई ही न कर जाएँ। जग्‍गा था, तो मुझे कोई भी चिंता नहीं होती थी। वह हाथ का बड़ा साफ़ था।

तू कुछ खा भी ना। तू तो कुछ भी नहीं खाती। गर्म चाय मँगवाऊँ? इसे छोड़ दे, यह ठण्डी पड़ गई होगी, यह केक का टुकड़ा ले। बाज़ारी है पर बहुत अच्‍छा है। केक तो बनाती है कमला की सास, एक-से-एक बढ़िया। कभी उसमें चाकलेट डालती है, कभी कुछ, कभी कुछ। ‘वेंगर’ से लेने जाओ, तो जो केक मुए अठारह रुपये में बेचते हैं, कमला की सास पाँच रुपये में बना लेती है। बीच में अण्डे भी, दूध-चीनी भी, किशमिश और बादाम भी, जाने क्‍या-क्‍या। मुझसे अपनी जान नहीं सम्भाली जाती, मैं क्‍या करूँगी। केक जग्‍गा भी बहुत अच्‍छे बनाता था। पर उसकी क़िस्मत खोटी थी, नहीं तो आज तुम्‍हें उसी के हाथ का बना केक खिलाती। हर तीसरे-चौथे दिन केक बनाता था, पर ख़ुद कभी नहीं खाता था। मैं उससे कहूँ, “तू भी एक टुकड़ा खा ले!” पर नहीं। वह कहता, “बीबीजी, यहाँ केक खाऊँगा, तो बाहर मुझे केक कौन देगा?”

किसे मालूम था कि यों चला जाएगा। मैं तो अब भी कहती हूँ, बक देता, तो बच जाता। पर अपनी-अपनी क़िस्मत है, कोई क्‍या करे! इनके सामने उसने मुँह ही नहीं खोला। इन्‍हें बहुत मानता था। बोला इसलिए नहीं कि इनके दिल को ठेस पहुँचेगी। और क्‍या बात हो सकती थी? अब अंदर की बात इन्‍हें क्‍या मालूम? वह बताए, तो पता चले। वह तो मैं जानती थी। उसके मन में क्‍या था, उसने हवा तक नहीं लगने दी।

धीरे बोल… दोपहर के वक़्त किसी को क्‍या मालूम, सोया आदमी तो मोए बराबर होता है, हमारे घर में तो उस वक़्त चिड़ी नहीं फड़कती। किसी को क्‍या ख़बर, घर के पिछवाड़े में क्‍या हो रहा है? मुझसे अपनी जान नहीं सम्भाली जाती। भगवान झूठ न बुलवाए, एक दिन दोपहर को मैं उठी। ग़ुसलख़ाने की तरफ़ जा रही थी, जब मुझे खटका-सा हुआ। मुझे लगा, जैसे कोई जग्‍गे की कोठरी की तरफ़ जा रहा है। मुझे क्‍या ख़बर, कौन नहीं है। फिर भी मेरे अंदर से फुरनी फुरी—इस वक़्त यहाँ कौन हो सकता है? जग्‍गे को तो इस वक़्त ये अपने दफ़्तर में बुला लेते हैं। जग्‍गा तो इस वक़्त दफ़्तर में काम करता है, इनके लिए चाय-पानी बनाता है, चपरासगीरी करता है। ये कहते थे कि घर के लिए कोई दूसरा नौकर मिल जाए, तो जग्‍गे को मैं दफ़्तर में रख लूँगा। फिर इस वक़्त यहाँ कौन हो सकता है?

मैंने खिड़की में से झाँककर देखा। हाय, यह तो बिक्‍की है, मेरा देवर। काला सूट पहने, दबे पाँव चला जा रहा था, और सीधा जग्‍गे की कोठरी में क्‍या करने गया है? फिर मैंने सोचा, किसी काम से आया होगा। पर जग्‍गे की कोठरी में उसका क्‍या काम? और यह इतना दबे पाँव क्‍यों जा रहा है? मन में आया, इसी से जाकर पूछूँ। पर मुझसे मेरी जान नहीं सम्भाली जाती। मैं लौटकर फिर पलंग पर पड़ रही, पर ध्‍यान मेरा बार-बार उसी ओर जाए। भलेमानस घरों में ऐसे काम नहीं करते। जो ऐसे काम करने हैं, तो शादी क्‍यों नहीं कर लेता। किसी का घर क्‍यों ख़राब करता है?

तुमने जग्‍गे की घरवाली देखी थी ना? बड़ी भोली-सी लड़की थी, गोरी इतनी, हाथ लगाए मैली होती थी। यह कलमुँहा किसी बहाने दफ़्तर से भाग आता था और उसकी कोठरी में जा घुसता था। उस दिन मेरी नज़र पड़ गई। असील-सी गाँव की लड़की, सहमी-सहमी-सी, इस चंट के आगे क्‍या बोलती?

धीरे बोल… इनके घर में बदचलनी बहुत है। ये ही एक शरीफ़ हैं। इनके चाचा ने भी दो-दो रखैल रखी हुई थीं। इनकी चाची, बुढ़िया, दोपहर को अपने एक नौकर से पाँव दबवाती थी। मैंने ख़ुद देखा है। खाना खाने के बाद अपने कमरे में घुस जाती और पीछे-पीछे मुस्टण्डा शंकर पहुँच जाता।

अब ऐसी बातें छिपी तो नहीं रह सकतीं ना। एक दिन जग्‍गे ने ही देख लिया। इन्‍होंने थर्मस मँगवाने के लिए जग्‍गे को घर पर भेजा। मैंने उसे थर्मस दी और वह अपनी कोठरी की तरफ़ चला गया। अचानक मैंने खिड़की के बाहर झाँककर देखा। बिक्‍की, वही काला सूट पहने, जग्‍गे की कोठरी में से बाहर निकल रहा था। “बिक्‍की बाबू…!” जग्‍गे ने कहा। फिर उसका मुँह जैसे बंद हो गया। फटी-फटी आँखों से उसे देखता रहा गया। उधर बिक्‍की, बिना उसकी ओर देखे, चुपचाप वहाँ से निकल गया। मेरा दिल धक-धक करने लगा। मैंने कहा, “अब इसकी घरवाली की ख़ैर नहीं। यह उसे धुन देगा। क्‍या मालूम, जान से ही मार डाले। इन लोगों का कुछ पता थोड़े ही लगता है। पर कोठरी के अंदर से न हूँ, न हाँ।”

मैं नहीं जानती, जग्‍गा कितनी देर तक अंदर रहा। उसने अपनी बीवी से कुछ कहा, या नहीं कहा। मैं तो जाकर लेट गई, पर मैंने मन-ही-मन कहा कि आज रात मैं इनसे बात करूँगी। या तो जग्‍गे को चलता करें, या उससे कहें कि अपनी घरवाली को गाँव छोड़ आए। यहाँ इसका रहना ठीक नहीं।

लेटे-लेटे भी मेरे कान कोठरी की ओर लगे रहे। अभी वहाँ से रोने-चिल्‍लाने, पीटने-रोने की आवाज़ आएगी। पर वहाँ बिल्‍कुल चुप! मैंने मन-ही-मन कहा, ऐसा शरीफ़ आदमी भी किस काम का, जो अपनी घरवाली को क़ाबू में नहीं रख सकता। दो लप्‍पड़ उसके मुँह पर लगाता, वह अपने-आप सीधे रास्‍ते पर आ जाती। दस तरीक़े हैं, औरत को सीधे रास्‍ते पर लाने के। पर यहाँ न हूँ, न हाँ।

पलंग पर लेटे-लेटे ही मुझे ऐसी घबराहट हुई, कि मुझे बाथरूम जाने की हाजत हो आयी। मुझे मुई कब्‍जी भी तो रहती है ना। रोज़ रात को ईसबगोल की भूसी दूध में डालकर लेती हूँ, तब जाकर सुबह पेट साफ़ होता है। कभी-कभी तो जान इतनी घबराती है कि क्‍या बताऊँ। एक बार पूरे पाँच दिन तक कब्‍ज रही। ये मज़ाक़ करते थे। कहते थे अब बाथरूम जाओगी, तो बाथरूम साफ़ करना मुश्किल हो जाएगा। हाय, अब तो हँसा भी नहीं जाता। हँसती हूँ, तो साँस फूलने लगती है। मुझे बवासीर की शिकायत भी तो रहती है ना। यहाँ एक मुसीबत थोड़े है। एक नहीं, बीस दवाइयाँ खा चुकी हूँ।

डाक्‍टर कहता है, “चला-फिरा करो।” अब इस शरीर के साथ कौन चल-फिर सकता है? थोड़ा-सा भी चलूँ, तो साँस फूलने लगती है। डाक्‍टर कहता है, “मिठाई मत खाया करो”, पर मुझसे हाथ रोका ही नहीं जाता। घर में दो-तीन डिब्‍बे मिठाई के हर वक़्त मौजूद रहते हैं, पर बर्फ़ी का टुकड़ा मुँह में डालने की देर है कि पेट में गुड़-गुड़ होने लगती है। डाक्‍टर मुआ बार-बार कहता है, “मिठाई खाना छोड़ दो।” पर एक टुकड़ा भी मुँह में न डालूँ, तो फिर जंगलों में जा बैठूँ, दुनिया से फिर क्या लेना है! मैं डाक्टर से कहती हूँ, डाक्टर जी, मुझे बैठे-बैठे ही ठीक कर दो। न मेरी मिठाई बंद करो, न मुझे घूमने को कहो। अगर मुझे सैर करके ही दुरुस्‍त होना है, तो मुझे तुम्‍हारी क्‍या ज़रूरत है? जब आते हो, पच्‍चास-पच्‍चास रुपये ले जाते हो। हम तुम्‍हें इतने पैसे भी दें, फिर भी तुम ठीक नहीं कर सको, तो फिर फ़ीस किस बात की लेते हो? हम पांडी-मजूर थोड़े हैं कि घूमते फिरें।

मैंने डाँटकर कहा, तो डाक्‍टर अपने-आप सीधा हो गया। कहने लगा, “कोई बात नहीं, खाना खाने के बाद दो बड़े चम्‍मच इस दवाई के पी लिया करो।” मैंने कहा, अब आया न सीधे रास्‍ते पर! अब दो चम्‍मच रोज़ पी लेती हूँ। डकार आनी तो बंद हो गई है, पर कोई बात इधर-उधर की हो जाए और मन घबराने लगे, तो बाथरूम की हाजत होने लगती है।

उस दिन क्‍लब में गई, तो हरचरन की बीवी औरतों पर रोआब गाँठ रही थी। कह रही थी, “मैं सात गोलियाँ रोज़ खाती हूँ।” मैंने सुना, पर चुप रही। मन में कहा, यह भी कोई ऐंठने की बात है? भगवान अहंकार न बुलवाए, पंद्रह-पंद्रह गोलियाँ भी रोज़ खायी हैं, पर बाहर जाकर ढिंढोरा नहीं पीटा कि दवाई की पंद्रह गोलियाँ रोज़ खाते हैं। डाक्‍टर घर का पक्‍का रखा हुआ है, तीन सौ रुपया बँधा-बँधाया उसे हर महीने देते हैं, घर में कोई बीमार हो या नहीं हो, अभी भी खानेवाले मेज़ पर जाकर देखो, कुछ नहीं तो दस दवाइयों की शीशियाँ वहाँ पर रखी होंगी, कुछ ताक़त की गोलियाँ, कुछ हाज़मे की, और तरह-तरह की। जग्‍गे को सब मालूम था कि कौन-सी गोली मुझे किस वक़्त चाहिए। अपने-आप लाकर दे दिया करता था। वह गया, तो दवाइयों का सारा सिलसिला ही ख़राब हो गया। …तुम कुछ लो ना, तुम तो कुछ भी नहीं खा रही हो।

उस दिन जो शाम को ये घर आए, तो आते ही कहने लगे, “कहाँ है जग्‍गा? उससे कहो, पाँच आदमी रात को खाना खाने आएँगे, बढ़िया तरकारियाँ बनाए और साग-मीट बनाए।” जग्‍गा आया, तो गुमसुम इनके सामने आकर खड़ा हो गया। चेहरा ऐसा पीला, जैसा मुर्दे का होता है। इन्‍होंने बड़े लाड़ से पूछा, “क्‍यों जग्‍गे क्‍या बात है, इतना चुप क्‍यों है? क्‍या गाँव से कोई बुरी ख़बर आयी है?” पर जग्‍गा चुप, न हूँ, न हाँ। इन्‍हें कहता भी तो क्‍या? इनसे कैसे कहता कि आपका भाई मेरी घरवाली से मुँह काला कर रहा है। कोई ग़ैरत भी तो होती है। इनके आगे तो वह आँख उठाकर भी नहीं देखता था। पर इनकी तबीयत को तो तुम जानती हो, बिगड़ जाएँ, तो सख़्त बिगड़ते हैं, आगा-पीछा नहीं देखते। और-तो-और, मुझे भी नौकरों के सामने बेइज़्ज़त कर देते हैं।

जब जग्‍गा कुछ नहीं बोला, तो इन्‍हें ग़ुस्सा आ गया। जग्‍गा पत्‍थर की मूरत बना खड़ा था। जाने उसके मन में क्‍या था। बोल देता, तो अपने दिल का ग़ुबार तो निकाल लेता। मगर वह चुप!

ये उसे डाँटने लगे, तो मैंने रोक दिया। मैंने कहा—जी, मेहमान आनेवाले हैं, अभी सारा काम पड़ा है, जा जग्‍गा, तू रसोईघर में चल। वह उसी तरह गुमसुम रसोईघर में चला गया। थोड़ी देर बाद मैं रसोईघर में गई कि खाने-वाने का देखूँ, तो यह वैसे-का-वैसा गुमसुम खड़ा था। रसोईघर के बीचोंबीच, पत्‍थर की मूरत बना हुआ। मैंने कहा, इसकी बुद्धि पथरा गई है, यह कोई काम नहीं कर पाएगा। मैं उन्‍हीं क़दमों से लौट आयी। मैंने इनसे कहा—जी, इसे तो कुछ हो गया है। यह बोलता नहीं, मुझे तो डर लगता है। तुम बाहर से खाना मँगवा लो, और इसे आज के दिन छुट्टी दे दो।

मैंने इनसे कहा, तो ये ख़ुद उठकर रसोईघर की तरफ़ चले गए। और बजाय उसे छुट्टी देने के, उसे फटकारने लगे। मैं थर-थर काँपने लगी। क्‍या मालूम, जग्‍गे ने कोई छुरा नेफे में छिपा रखा हो। इन लोगों का क्‍या भरोसा? “बदजात बोलता क्‍यों नहीं?” ये ऐसे चिल्‍लाए, जैसा मैंने इन्‍हें कभी चिल्‍लाते नहीं सुना। मेरा तो ऊपर का साँस ऊपर और नीचे का साँस नीचे। मैं करूँ तो क्‍या करूँ? मैं भागकर इनके पास गई। मैंने सोचा, इन्‍हें खींचकर बाहर ले आऊँगी, पर इन्‍होंने मेरा हाथ झटक दिया। “कमीने, मैं बार-बार पूछ रहा हूँ, बता क्‍या बात है, और तू बोलता तक नहीं। तेरी ज़बान घिसती है, मुझे जवाब देने में? निकल जा यहाँ से, अभी चला जा, मेरी आँखों से दूर हो जा।” और जग्‍गे को कान से पकड़कर रसोईघर के बाहर ले आए। मैं इन्‍हें समझाने लगी—कुछ न कहो जी, घण्टे-दो घण्टे में मेहमान आनेवाले हैं, और अभी तक कुछ भी नहीं बना। यह चला जाएगा, तो खाना कौन बनाएगा। जा जग्‍गा, जा, तू रसोईघर में जा। और मैं इन्‍हें जैसे-तैसे खींच लायी।

रात को जब मेहमान चले गए… हाँ जी, बनाया जग्‍गे ने, सारा खाना बनाया। बड़ा अच्‍छा खाना बनाया, पर रहा गुमसुम, मुँह से एक लफ़्ज़ नहीं बोला, खाना खाते-खाते इनका दिल भी पसीज गया! मेहमानों के सामने ही उससे कहने लगे, “जग्‍गे! जा तेरी दस रुपये तरक़्क़ी! राय साहब कहते हैं, साग-मीट बहुत अच्‍छा बना है, शाबाश! जा तेरा क़सूर माफ़ किया।” ये देने पर आएँ, तो मुँह-माँगी मुराद पूरी करते हैं। इनका दिल तो समंदर है।

रात को मुझसे नहीं रहा गया। मैंने कहा—जी, बिक्‍की बड़ा हो गया है, अब इसकी शादी की फ़िक्र करो। तो कहने लगे, “तुम्‍हें इसकी शादी की क्‍या पड़ी है, अभी इसकी उम्र ही क्‍या है, अभी तो इसके मुँह पर से दूध भी नहीं सूखा।” मैंने कहा, “जी, शादी नहीं करोगे तो खूँटा तुड़ाए सांड की तरह जगह-जगह मुँह मारेगा।” मैंने गोल-मोल शब्‍दों में कहा। पर बिक्‍की से उन्‍हें बहुत प्‍यार है, इसे अपने बच्‍चे की तरह इन्‍होंने पाला है। उसकी बुराई ये नहीं सुन सकते। मैंने फिर से उसकी शादी की बात चलायी, तो कहने लगे, “मार ले जितना मुँह मारता है, अभी उसकी उम्र ही क्‍या है, दो दिन हँस-खेल ले, ब्‍याह के बंधन में तो एक दिन बँध ही जाएगा।”

मैंने कहा—जी, जवान लड़का है, ग़लत रास्‍ते पर भी पड़ सकता है। इसका तो जितनी जल्‍दी हो, ब्‍याह कर दो। इस पर कहने लगे, “अभी तो इसने पढ़ाई भी पूरी नहीं की। कुछ नहीं तो तीस-चालीस हज़ार इसकी पढ़ाई पर ख़र्च कर चुका हूँ। इसकी शादी करूँ, तो कम-से-कम यह रक़म तो वसूल हो। और अभी इसने बी.ए. पास भी नहीं किया।”

मर्द लोग बड़े समझदार होते हैं, इन्‍हें तो दस बातों का ध्‍यान रहता है। अब मैं और आगे क्‍या कहती। मैंने इतना-भर कहा, आप इसके कान खींचते रहा कीजिए, जवानी बड़ी मस्‍तानी होती है। इस पर ये बिगड़ उठे, “तुम्‍हें कुछ मालूम है क्‍या? बोलती क्‍यों नहीं हो?” ये इतनी रुखाई से बोले कि मैं चुप हो गई। मैंने सोचा, फिर कभी मौक़ा मिलेगा, तो बात करूँगी, इन्‍हें आराम से समझाऊँगी, पर मुझे क्‍या मालूम था कि दूसरे ही दिन गुल खिलनेवाला है।

दूसरे दिन सुबह, यही आठ-साढ़े आठ का वक़्त होगा, मैं पिछले बरामदे में बैठी बाल सुखा रही थी। वहाँ धूप अच्‍छी पड़ती है। मैंने सोचा, बाल सूख जाएँ, तो उन्‍हें काला करूँ। जग्‍गे की घरवाली बड़े सँवारकर मेरे बाल बनाती थी। मैंने सोचा, बाल सूख जाएँ, तो उसे बुला लूँगी। यही आठ-साढ़े आठ का वक़्त होगा। उसी वक़्त फ़्रंटियर मेल आती है। घर के पिछवाड़े थोड़ी दूर पर ही तो रेलवे लाइन है। अगर गाड़ियों को सिगनल नहीं मिले, तो यहीं पर रुक जाती हैं, फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ती हैं। पर फ़्रंटियर मेल यहाँ नहीं रुकती। वही एक गाड़ी है, जो यहाँ खड़ी नहीं होती।

जग्‍गे ने पहले से ही सबकुछ सोच रखा होगा। उधर से गाड़ी आयी, तो जग्‍गा अपनी कोठरी में से निकला। मैंने कहा, जग्‍गे, सुरस्‍ताँ को मेरे पास भेज दे। पर मुझे लगा, जैसे उसने सुना ही नहीं। वह भागकर पिछवाड़े की दीवार फाँद गया और रेलवे लाइन की ढलान चढ़ने लगा। यह सब पलक मारते हो गया। उसने मुड़कर पीछे देखा ही नहीं, मेरी भी अक्‍कल मारी गई, मुझे सूझा ही नहीं कि वह क्‍यों भागा जा रहा है। मैंने सोचा, किसी काम से जा रहा होगा। गाड़ी का तो मुझे ख़याल ही नहीं आया। वरना मैं उसे रोक नहीं देती? ढलान चढ़ने के बाद मैंने नहीं देखा कि वह कहाँ गया है, किस तरह गया है!

झूठ क्‍यों बोलूँ, शाम का वक़्त है। बस, फिर मुझे नज़र नहीं आया। मुझे तो खटका तब भी नहीं हुआ, जब गाड़ी धम-धम करती आयी और कुछ ही देर बाद पहिए घसीटती रुक गई। पहिए घिसटने की आवाज़ आती है ना, जैसे किसी ने चेन खींची हो। पर मैंने ख़याल नहीं किया, यहाँ रोज़ गाड़ियाँ रुकती हैं। मैंने सोचा किसी ने चेन खींची होगी। थोड़ी देर में माली भागा-भागा आया। कहने लगा, कोई हादसा हो गया है, और वह भी पिछवाड़े की दीवार फाँदकर ढलान चढ़ने लगा। मुझे फिर भी शक नहीं हुआ। थोड़ी देर बाद पड़ोसवाले नौकर ने चिल्‍लाकर कहा, “जग्‍गा मारा गया है। जग्‍गा गाड़ी के नीचे कुचल गया है।”

मेरा दिल बुरी तरह से धक-धक करने लगा। उसके साथ उंस थी ना। वह तो जैसे घर का आदमी था, कोई पराया थोड़े ही था। ये तो उसके साथ बेटे-जैसा सुलूक करते थे। वह भी इन्‍हें बाप की तरह मानता था। यही चीज़ उसे अंदर-ही-अंदर खा गई। मैं तो अब भी कहती हूँ, अगर जग्‍गा बोल पड़ता, तो बच जाता। ये ज़रूर कोई-न-कोई रास्‍ता ढूँढ निकालते। ये सब तरकीबें जानते हैं। बड़े समझदार हैं। पर वह बोला ही नहीं।

वह दिन तो ऐसा बुरा बीता, ऐसा बुरा कि तुम्‍हें क्‍या बताऊँ! बार-बार टेलिफ़ोन आएँ, तीन बार तो पुलिस का इंस्पेक्टर आया। बार-बार इन्‍हें बुलाता, बार-बार कोठरी में झाँककर देखता। अंदर बैठी थी, वह कुलच्‍छणी! मौक़ा देखने के बहाने इंस्पेक्टर बार-बार अंदर जाए। मर्द तो भेड़िए की तरह औरत को घूरते हैं ना। और वह अंदर बेहोश पड़ी थी। उसे बार-बार ग़श आ रहे थे। अब मैं किस काम की! मुझसे अपनी जान नहीं सम्भाली जाती। दो-एक बार मन में आया भी कि जाऊँ, सुरस्‍ताँ को देख आऊँ। पर इन्‍होंने मना कर दिया, ये कहने लगे, फ़ौजदारी का मामला है, इससे दूर ही रहो। जब तक पुलिस अपनी कार्रवाई न कर ले, कोठरी में क़दम नहीं रखना। मर्द समझदार होते हैं ना, उन्‍होंने दुनिया देखी होती है। पुलिस ने इनसे पूछा, तो इन्‍होंने कहा, “वह पिछले दिन से ही पगलाया-पगलाया-सा लग रहा था। मियाँ-बीवी की आपस में कोई बात हुई हो, तो हम नहीं जानते। नौकरों की अंदर की बातों से मालिकों का क्‍या काम?” एक बार अंदर आए, तो मैंने इनसे कहा, “जी, तुम बिक्‍की को कहीं बाहर भेज दो।” मैं कहूँ, इन्‍हें मालूम नहीं, पर आस-पास के किसी आदमी को मालूम हुआ, तो बखेड़ा उठ खड़ा होगा। पर इन्‍होंने समझदारी की। बिक्‍की को बाहर नहीं भेजा। मर्द लोग समझदार होते हैं, बिक्‍की लापता हो जाता, तो पुलिस को शक पड़ सकता था, ना।

एक मठरी और लो! लो ना! तुमने तो कुछ खाया ही नहीं। खाओगी तो सेहत बनी रहेगी, बस मुटियाना नहीं। मेरी तरह मोटी नहीं होना, मोटी देह किस काम की। तुम आ गईं, तो घण्टा, आध घण्टा, मन बहल गया। कभी-कभी आ जाया करो ना। तुम दूर तो नहीं रहती हो। कहो तो मोटर भेज दिया करूँ? अकेले में तो घर भाँय-भाँय करता है। ये तो दफ़्तर से आते हैं, तो सीधे ब्रिज खेलने चले जाते हैं। जब तक तीन-चार घण्टे ब्रिज न खेल लें, इन्‍हें चैन नहीं मिलता। यह ताश तो मेरी सौतन आयी है, इस घर में जब से ब्‍याही आयी हूँ, यह मेरा पीछा नहीं छोड़ती। रोज़ शाम को इन्‍हें उड़ा ले जाती है। हाय, अब तो हँस भी नहीं सकती हूँ। हँसती हूँ, तो साँस फूलने लगता है। छाती में शाँ-शाँ होती है। मैं इनसे कहूँ, तुम ताश बहुत न खेला करो जी। अपनी सेहत का भी कुछ ख़याल किया करो। जानती हो, क्‍या कहते हैं? कहने लगे, “इसी ताश के तुफ़ैल ही से तो मेरे दस काम सँवरते हैं। पुलिस का बड़ा अफ़सर ताश का साथी था, तभी जग्‍गेवाला मामला रफ़ा-दफ़ा हो गया, वरना घर में से कोई ख़ुदकुशी करे, तो पुलिसवाले क्‍या घरवालों को परेशान नहीं करेंगे?” मैंने कहा, “ठीक है, मर्द लोग जानें, हम क्‍या जानें।” बस, वहीं दिन हमारा बुरा गुज़रा। इनको दिन के वक़्त सोने की आदत है, थोड़ा सो न लें, तो बदन भारी-भारी महसूस करने लगता है, पर कोई सोने दे तो! उस दिन वह भी नहीं हुआ। सोने के लिए लेटें, तो कभी टेलीफ़ोन की घण्टी बजने लगे, तो कभी कोई सरकारी आदमी आ जाए। पर दूसरे दिन से चैन हो गया। फिर कोई नहीं आया।

जब मामला रफ़ा-दफ़ा हो गया, तो एक दिन मैंने बिक्‍की की सारी करतूत इन्‍हें बात दी। ये कहने लगे, “मुझे तो पहले दिन से मालूम था।” मैं हक्‍की-बक्‍की इनके मुँह की ओर देखने लगी। “जवानी में सभी बेवक़ूफ़ियाँ करते हैं, इसने कर ली, तो क्‍या हुआ।” मैंने कहा, “जी, बिक्‍की को समझा तो दिया होता।” कहने लगे, “कोई बेसवा के पास तो नहीं गया, कोई बीमारी तो नहीं ले आया, हो गई बात जो होनी थी, आगे के लिए इसे ख़ुद कान हो जाएँगे।” मैंने कहा, “जी, पर बात तो अच्‍छी नहीं ना, ऐसा बिक्‍की को करना तो नहीं चाहिए था ना। बिक्‍की ने ऐसा नहीं किया होता, तो जग्‍गा जान पर तो नहीं खेल जाता ना।” तो कहने लगे, “तुम क्‍या चाहती हो, भाई को पुलिस में दे देता?” “पर जी, उसने जुर्म तो बहुत बड़ा किया है, ना।” ये और भी बिगड़ उठे, “उसका जुर्म देखता या उसकी जान बचाता? तुम क्‍या चाहती हो, उसे काल-कोठरी में भिजवा देता?”

फिर थोड़ी देर बाद धीमे-से बोले, मुझे समझाने लगे, “औव्‍वल तो कौन जाने, बिक्‍की अपने-आप अंदर गया था या जग्‍गे की घरवाली उसे इशारे करती रही थी। ताली एक हाथ से तो नहीं बजती। औरत बढ़ावा देती है, तभी मर्द बहकता है। लड़की इशारा भी कर दे, तो आदमी बौरा जाता है। कोठरी के बाहर पर्दा लगा रहता है। क्‍या मालूम पर्दे की ओट में उसे इशारे करती रही हो। औरत ख़ुद न चाहती, तो क्‍या मजाल थी कि बिक्‍की उसके कमरे में जाता। ऐसे ही कोई किसी के कमरे में घुस जाता है? इतनी ही शरीफ़ज़ादी थी, तो अंदर से कमरा बंद करके क्‍यों नहीं बैठती थी? अंदर से साँकल लगाकर बैठती। तेरा मर्द बाहर काम पर गया है, तू कोठरी में अकेली है, तू अंदर से कोठरी बंद करके बैठ। दरवाज़ा खोलकर बैठने का तेरा क्‍या मतलब है? दिन के वक़्त तेरे पास आ सकती थी। उसे किसी ने मना किया था?”

मैं सुनती रही, मैं भी सोचूँ, किसी के दिल की कौन जानता है, लड़की के दिल में चोर था, या बिक्‍की के दिल में, भगवान जाने।

आख़िर में जी, इन्‍होंने सारा मामला सम्भाल लिया, इनसे सब संतुष्‍ट हो गए। इन्‍हें भगवान ने ऐसी समझदारी दी है, इनकी कोई क़सम तक नहीं खाता। सभी इनके सामने हाथ जोड़ते हैं। ये जल्‍दी घबराना नहीं जानते ना, यही इनकी सबसे बड़ी ख़ूबी है। कोई दूसरा होता, तो घबरा जाता। जग्‍गे का भाई गाँव से आया, बहुत रोया-धोया, उसे इन्‍होंने दो सौ रुपये निकालकर दे दिए। जग्‍गे की घरवाली का बाप आया। उसे भी इन्‍होंने पैसे दिए। मैंने इनसे कहा, “जी, मामला रफ़ा-दफ़ा हो गया है, अब ये हमारे क्‍या लगते हैं, तुम पैसे लुटा रहे हो।” पर नहीं, ये कहने लगे, “जग्‍गे ने दस साल तक हमारी सेवा की है। इसे हम कैसे भूल सकते हैं।” कहने लगे, “सौ-पच्‍चास दे दो, तो ग़रीब का मुँह बंद हो जाता है।” ये सबका भला सोचते हैं, किसी का बुरा नहीं सोचते। हर किसी की मदद ही करेंगे।

यह ज़रा घण्टी तो बजाना। मुए जानते भी हैं, रात पड़ गई है, मगर मजाल है, जो अपने-आप आकर बत्ती जलाएँ। बार-बार घण्टी बजानी पड़ती है। कानों में तेल डाले पड़े रहते हैं। अब आयी हो, तो खाना खाकर जाना। ये जाने कब लौटेंगे। कभी दस बजे आते हैं, कभी खाना खाकर आते हैं। मैं दिन-भर अकेली बैठी कौव्‍वे उड़ाती रहती हूँ। अब खाना खाए बिना तो मैं तुम्‍हें जाने ही नहीं दूँगी। तुम आ गईं, तो घड़ी-भर दिल बहल गया। हमने अपनी बातें तो अभी तक की ही नहीं। दोनों बैठी बातें करेंगी। तुमने साग-मीट का पूछा तो बीच में मुए जग्‍गे की बात चल पड़ी। मैं तुम्‍हें खाना खाए बिना तो जाने नहीं दूँगी…

भीष्म साहनी की कहानी 'चीलें'

भीष्म साहनी की किताब यहाँ ख़रीदें:

भीष्म साहनी
भीष्म साहनी (८ अगस्त १९१५- ११ जुलाई २००३) आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से थे। १९३७ में लाहौर गवर्नमेन्ट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद साहनी ने १९५८ में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। भीष्म साहनी को हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। उन्हें १९७५ में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९७५ में शिरोमणि लेखक अवार्ड (पंजाब सरकार), १९८० में एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन का लोटस अवार्ड, १९८३ में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड तथा १९९८ में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया। उनके उपन्यास तमस पर १९८६ में एक फिल्म का निर्माण भी किया गया था।