अँधेरे को कुचलते हुए
उदय होता है सूर्य,
अँधेरा होता है अस्त
सूरज को कोसते हुए
दोपहर हमारी खिड़कियों से
हमारे भीतर दाख़िल होने की कोशिश में रहती है
धूप आदमी के पसीने के अनुसार
अपनी तपन नहीं बदलती
प्रेत रातों के साथ खेलते हैं
सारी रात जुआ
हर पहर के अपने-अपने अहम हैं।
एक साँझ है सिर्फ़
जो अँधेरे के पहले चूमती है
हर उस व्यक्ति का हाथ
जो धूप से झुलस गया है,
हर उस बच्चे का माथा सहलाती है
जिसे रात के अँधेरे से लगता है डर
जीवन जैसे दिन-भर दुबका रहता हो
किसी शरणार्थी कैम्प में,
उस समय जो पूछने आता है हाल
साँझ होती है ठीक उसी की तरह सुन्दर।
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