‘Saas Aur Bahu’, Hindi Kahani by Rashid Jahan

लो आज सुबह से ही उन्होंने शोर मचाना शुरू कर दिया।

ऐ बहन क्या पूछती हो कि तुम्हारी सास क्यों ख़फ़ा हो रही हैं। उनकी आदत ही यह है। हर आए-गए सबके सामने मेरा रोना रोकर बैठ जाती हैं। सारी दुनिया के ऐब मुझमें हैं। सूरत मेरी बुरी। फूहड़ मैं। बच्चों को रखना मैं नहीं जानती। अपने बच्चों से मुझे दुश्मनी। मियाँ की मैं बैरी। गर्ज़ेकि कोई बुराई नहीं जो मुझमें नहीं और कोई ख़ूबी नहीं जो उनमें नहीं।

अगर मैं खाना पकाऊँ तो ज़बान पर फ़ौरन रखकर थूक देंगी और वह नाम रखेंगी कि ख़ुदा ही पनाह कि दूसरा भी न खा सके। शुरू-शुरू में तो मुझे खाना पकाने में काफ़ी दिलचस्पी थी। तुम जानती हो कि अपने घर पर भी अकसर पका लेती थी और मेरी अम्मा को इतना अच्छा खाना पकाना आता है कि अपने रिश्तेदारों में हर जगह मशहूर हैं। यहाँ तो जो पकाया उसमें बुराई ही निकली कि नमक तो देखो, ज़हर। मज़ा ऐसा कि मिट्टी खा लो।

एक दिन ख़ुद ही बड़े पकाए। इतने बुरे थे कि हमारे ससुर ने कहा कि ऐसे वाहियात बड़े किसने पकाए हैं। ख़ूब बड़बड़ाईं कि तुमको तो बस बहू के हाथ की चीज़ें अच्छी मालूम होती हैं। सारी उम्र यही तो पका-पकाकर खिलाती रही है। अब मैं क्या बोलती। ख़ूब हँसे कि तुम्हारा सब्र पड़ा। मैंने सोचा कि काम करो और बातें भी सुनो तो इससे बेहतर न ही करो। खाने-पकाने ही पर क्या है।

सीने-पिरोने में जो कभी-कभार एक आध चीज़ दर्ज़ी से सिलवा लूँ तो बस फिर सुनो। महीनों हर आए-गए के सामने होता है कि हमारी बहू साहब तो मेम साहब हैं। वह तो दर्ज़ी से सिलवाती हैं। हर चीज़ अपनी, बच्चों की, उनके कुर्ते-पाजामे ख़ुद ही सी लेती हूँ। लेकिन कभी-कभार किसी नई क़िस्म के ब्लाउज या कोट को दिल चाहने लगे तो दर्ज़ी को दे देती हूँ। छिपाकर देती हूँ फिर भी उनके इतने मुख़बिर मेरे पीछे लगे रहते हैं कि हर बात की ख़बर कर देते हैं।

जब मैं नयी-नयी आयी थी तो इनका एक चिकन का कुर्ता मैंने सी दिया था। हरेक को दिखाया गया और बुराई की गई। जो देखे चुप हो जाए। अच्छे ख़ासे कुर्ते की कोई कैसे बुराई कर दे। जब किसी ने बुराई न की तो उसको सिरे से उधेड़ डाला और फिर किसी और से सिलवाया। दिल तो मेरा भी चाहा कि अब सबको दिखाऊँ, लेकिन मैं यह कैसे कर सकती थी। वह बड़ा होने और सास बनने का फायदा उठाती हैं। हर वक़्त पढ़ा-लिखा होने का ताना है। कोई किताब मेरे हाथ में देखें तो जल जाती हैं। किसी को ख़त लिखता देख लें तो समझती हैं कि उन्हीं की बुराई लिख रही हूँ। कोई बात ही उनको मेरी पसन्द नहीं और सबसे बुरी बात जो लगती है कि हम दोनों मियाँ-बीवी ख़ुश न रहें।

कभी अगर यह मेरे लिए कुछ ले आएँ और ख़बर हो जाए तो जल-भुनकर रह जाती हैं। और उठते-बैठते उनको ताना देती हैं कि तुम तो बीवी के ग़ुलाम हो। हर वक़्त मेरी बुराई उनके सामने करती हैं, वह सुनकर टाल जाते हैं। कभी माँ से बिगड़ भी जाते हैं और कभी हँसकर कह भी देते हैं कि हाँ, बातें बहुत बुरी हैं, अम्मा, मेरी दूसरी कर दो। उस वक़्त तो उनको बातें सुनाती हैं कि जो तुम्हारे में यह हिम्मत होती हो यह सर ही क्यों चढ़ती और दूसरों के सामने कहती फिरती हैं कि मेरा लड़का तो अपनी क़िस्मत को रोता है। मुझसे कहता है कि मेरी दूसरी कर दो। वह तो मैं ही हूँ कि अपने बच्चे पर इन बीवी के लिए जुल्म कर रही हूँ। कोई दूसरी वाली होती तो कभी का कर देती।

न इस करवट चैन है न उस करवट। बच्चों के ऊपर लो। बिल्कुल नाश हो गया है। जिस बात को मैं हाँ कहूँगी यह ना। जिस बात को मना करूँगी यह ज़रूर करके देंगी। अब बाहर कोई सौदेवाला पुकारे, बच्चे तो ज़रूर माँगेंगे। मुझे ये सौदेवालों से मक्खियों का भिनकता हुआ सौदा बच्चों को लेकर देना पसन्द नहीं। मेरी ज़िद में ज़रूर लेकर देंगी।

पिछले साल बरसात में बड़े लड़के को मलाई की बर्फ़ खाकर वह ज़ोर का बुख़ार चढ़ा, दो महीने लिए बैठी रही। उसमें भी लड़ाई कि बच्चे को भूखा मारे दे रही हैं। इंजेक्शन लगवा-लगवाकर छेद कर दिए। रोज नए-नए ताबीज़ आते थे और साथ में मौलवी साहब झाड़फूँक के वास्ते लाए जाते थे। जब किसी तरह नहीं मानीं तो बीमार बच्चे को उठाकर हास्पिटल ले गई कि कुछ आराम मिले। वह तो कहीं बेचारी डॉक्टरनी मेरी दोस्त है। वरना कौन किसी की बात सुनता है। यह वहाँ भी जाकर बातें चार डॉक्टर, नर्सों को और दस मुझको सुना आती हैं।

बच्चों को वक़्त पर दूध देने की हमारी सास ऐसी दुश्मन हैं कि क्या बताऊँ। वह कहती हैं कि माँ होकर बच्चों की दुश्मन हूँ। बच्चे भूख से तड़पते हैं और मैं बैठी देखती रहती हूँ और मेरा दिल पत्थर का है। मैं बच्चों को पैदा होते ही किसी फल का अर्क यानी नारंगी या सेब का देती हूँ। जब पहले बच्चे को मैंने दिया तो बड़ी हायतौबा मचाई और बैठी पीटती थीं कि मैं हरगिज़ नहीं देने दूँगी। यह तो बच्चे को निमोनिया करके मारना चाहती है। हमारे ससुर बेचारे नेक हैं। उन्होंने समझाया, जब यह किसी तरह नहीं मानीं तो मुझे मेरे मैके छोड़ आए।

छः महीने वहाँ रही फिर जाकर ले आए। महीनों बात नहीं की। रात को कहती थीं कि बच्चे को अपने पास सुलाओ। मैं अलग सुलाती हूँ तो जुल्म करती हूँ। मेरे तो तीन बच्चे हैं। सब पहले दिन से अलग सोते हैं। कि कोई भूत-परेत चिमट जाएगा। बच्चे को उठाकर अपने पास सुलाती थीं और तो और रात को देखो तो दूध कटोरी से बत्ती डालकर पिला रही हैं। जो मैं मना कर दूँ तो अठवारों की ठन जाती है। हर बच्चे पर इसी तरह दिक़ करती हैं।

मुझको गन्दी फूहड़ न मालूम क्या-क्या कहती हैं। ज़रा उनकी तरफ जाकर देखो। पीक पड़ी हुई मक्खियाँ भिनभिनाती हुईं। इसका नाम सफ़ाई है। उगालदान पास रखा है लेकिन सहन में जब थूकेंगी तो ज़मीन पर। पास बैठते हुए घिन आती है। लेकिन मैं जो हर चीज़ जगह पर रखती हूँ, चिलमन मक्खियों की वजह से डालती हूँ तो गन्दी हूँ।

अब साल-भर से यह नाराज़गी कि चूल्हा अलग कर लिया। अब कोई किसी वक़्त दोनों बावर्चीख़ाने जाकर देख ले। मेरे यहाँ कभी न तरकारी फैली मिलेगी न बर्तन। सबसे बड़ी बात यह है कि मेरे यहाँ एक भी मक्खी मिलेगी न गन्दे बर्तन। इनके यहाँ हर वक़्त मक्खियों की बारात लगी है। कहती हैं कि मैं हर जगह घर में फ़िनायल डाल-डालकर नहूसत फैलाती हूँ।

उनके ख़याल में तो सलीके के ये मानी हैं कि नौकरों को ख़ूब तंग करो। पेट भरकर खाने को न दो। हर एक रोटी और चावल को बैठकर गिना करो। नौकर भी तो आदमी होते हैं। दो रोज़ में घबराकर भाग जाते हैं। मैं नौकरों के कपड़े बनाती हूँ। ज़बर्दस्ती नहलवाकर बदलवाती हूँ तो कहती हैं कि मियाँ के रुपए का दर्द नहीं है। नौकरों को बादशाह बना रखा है और एक इलज़ाम यह भी है कि नौकर इनके मेरे नौकरों को देखकर ख़राब हुए जाते हैं। मैं घर के आदमियों को बिगाड़ देती हूँ।

और तो और घर में कोई आ जाए तो ख़फ़ा होती हैं कि सामने क्यों होती हूँ। पर्दा क्यों नहीं करती। अब इनके कई दोस्त हैं। एकाध दफ़ा ऐसा भी हुआ कि वह घर पर न हुए। बस क़ियामत उठाई कि मेम बन गई है।मर्दों से मिलती है। बेशर्म है। न मालूम क्या-क्या कहा।

जो मैंने कहा कि आपकी लड़की भी तो बेपर्दा निकलती है तो बोलीं, उसका मियाँ तो ज़बर्दस्ती निकालता है। मतलब यह हुआ कि वह तो इतनी नेक है कि उनका निकलने का दिल नहीं चाहता और मियाँ के जुल्म से बाहर निकलती हैं। मैं इतनी ख़राब हूँ कि मर्ज़ी के ख़िलाफ़ निकलती हूँ। हर एक के सामने यही कहती हैं कि अपनी शर्म को ग़ुस्से का घूँट पीकर चुप हो जाना पड़ता है। हमारी ननद तो किसी मदरसे में भी नहीं पढ़ीं। शादी के बाद मियाँ ने पढ़वाया-लिखवाया। हर जगह आती जाती हैं, और हमारी सास को भी अच्छी तरह मालूम है, लेकिन छिपा जाती हैं।

पिछली दफ़ा जब यहाँ आयीं तो मैंने अम्मा के सामने ही पूछा कि सच बताओ क्या ज़बर्दस्ती की जाती है जब बाहर निकलती हो या अपनी मर्ज़ी से। वह बोलीं, क्यों क्या बात है? मैं तो अपनी मर्ज़ी से निकलती हूँ। अब मुझे कोई पर्दे में रखना भी चाहे तो न रहूँ। तो हमारी सास सुनकर क्या कहती हैं कि मेरे लड़के को तो मुझसे छुड़ा लिया है। उसके दिल में मेरी तरफ़ से नफ़रत बिठा दी। अब मेरे दूसरे बच्चों पर भी हाथ साफ़ करो। मेरे हर बच्चे के सामने मेरी बुराई किया करो। उलट भी उनका पलट भी उनका। वही काम मैं करूँ तो बुरा हो जाता है और उनकी लड़की करे तो अच्छा हो जाता है।

इनको कभी मुझसे हँसकर बात करते तो देख ही नहीं सकतीं। उन्हें सबसे ज़्यादा रंज इस बात का है कि वह मुझसे क्यों मोहब्बत करते हैं। कमरे में मैं आयी और जो वह मुझसे ख़ुश होकर बोल लिए तो गज़ब हो जाता है। और तो और हर वक़्त मेरी सूरत की बुराई इनके सामने होती है। इनको भी शरारत सूझती है तो कह देते हैं कि अम्मा, और तो सब ऐब हैं लेकिन शक्ल तो बहुत अच्छी है। कहने लगती हैं, शर्म नहीं आती, जोरू की तारीफ़ मेरे सामने करता है। फिर तो वह मेरी तारीफ़ करती हैं। इनको हँसी आती रहती है। मेरा दिल जल जाता है। मैं चुपके से उठकर चली आती हूँ।

हर वक़्त मेरा अपना मुक़ाबला बेटे के सामने करती रहती हैं। भला कहाँ मैं कहाँ बीबी। उनका तो उस दिन कलेजा ठण्डा होगा जिस दिन वह मुझे मारें या घर से निकाल दें या दूसरी शादी कर लें। और भी जो मेरी देवरानियाँ, जेठानियाँ हैं वह अलग-अलग शहरों में हैं। जब वह आ जाती हैं तो थोड़े दिन तो उनकी ख़ातिर होती है फिर उनमें भी ऐब निकलने शुरू हो जाते हैं। और फिर यह होता है कि मैंने सबको बुलाकर उनके ख़िलाफ़ मिसकौट बनायी है। बुरी तो सब ही बहुएँ हैं लेकिन सबसे बुरी मैं हूँ और बदक़िस्मती से थोड़ी पढ़ी-लिखी हूँ तो मेम साहब का ख़िताब मिल गया है।

मैं तो जब यह अपनी बड़बड़ाहट शुरू करती हैं तो कमरे में जाकर किवाड़ बन्द करके कुछ काम करने लगती हूँ कि न सुनूँगी न बुरा लगेगा। अब सुबह से फिर इस बात पर बड़बड़ा रही हैं कि बच्चों के मैंने कल टाइफ़ायड के टीके लगवा दिए। उनको थोड़ा-थोड़ा बुख़ार है। बड़ा लड़का बहुत लाडला है और जाकर पास लेट गया। उसके सर पर हाथ रखकर जो बातें सुनानी शुरू की हैं तो अब दो घण्टे तो हो गए। अभी देखो कब तक यह सिलसिला चलता है।

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रशीद जहाँ
रशीद जहाँ (5 अगस्त 1905 – 29 जुलाई 1952), भारत से उर्दू की एक प्रगतिशील लेखिका, कथाकार और उपन्यासकार थीं, जिन्होंने महिलाओं द्वारा लिखित उर्दू साहित्य के एक नए युग की शुरुआत की। वे पेशे से एक चिकित्सक थीं।

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