पुरुष की नज़र में
नमक होती है
स्त्री
बिना जिसके बेज़ायका ज़िन्दगी,
करता है इस्तेमाल
स्वादानुसार
न ज़्यादा, न कम
हरदम।

वह नयी-नयी चीज़ों में
रमाता है मन
बदलता है स्वाद
ख़ुश होता है
ख़ामख़ा अहसास से
पर ज़िन्दगी
गुज़रती नहीं यूँ ही
चुभती है
सालती है
कुछ है
जो कम है
हमदम।

रोज़ होती है ज़रूरत
चुटकी भर नमक की
जो पूरी तरह घुलकर
बढ़ाए ज़ायका
हरी कर दे तबीयत
लेकिन
बर्दाश्त नहीं होता
साबुत कण एक भी
नमक का
स्त्री का
दिखना, होना
खाने में
ज़िन्दगी में
जो न घुले।

पूर्णिमा मौर्या
कविता संग्रह 'सुगबुगाहट' 2013 में स्वराज प्रकाशन से प्रकाशित, इसके साथ ही 'कमज़ोर का हथियार' (आलोचना) तथा 'दलित स्त्री कविता' (संपादन) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका 'महिला अधिकार अभियान' की कुछ दिनों तक कार्यकारी संपादक रहीं। विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं व पुस्तकों में लेख तथा कविताएं प्रकाशित।