ये सड़कें गवाह हैं,
उन बेहिसाब क़त्लों की
जो आए दिन क्या
बल्कि हर रोज़
हादसों के बाद
सड़क की मौत मरे
जानवरों इंसानों पंछियों
साँपों और तितलियों को
ख़तरनाक लाशों में
तब्दील होते देखती हैं।

उन लाशों के एक आध-लीटर लहू
या सेर दो सेर माँस
बिला सुपुर्द-ए-ख़ाक के
सुपुर्द-ए-सड़क होते हैं।

ये सड़के क़ब्र हैं
जहाँ अनगिनत लाशें
इन सड़कों में खप जाती हैं
और सड़कों की सूरत
अख़्तियार किए इन क़ब्रों से होकर
हम सब हर रोज़ निकलते हैं
अपने नाक-आँख बन्द कर
रोज़ चलते हैं;
अपनी उन सभी मंज़िलों की तरफ़
अपनी तमाम कोशिशों की तरफ़
अपनी तमाम ख़ुशियों की तरफ़
अपनी तमाम अज़ीयतों की तरफ़
हमारे उम्मीदों और ख़्वाबों के
कंदील रौशन होते हैं
इन्हीं क़ब्रों से होकर।
तो
इन्हीं सड़कों के क़ब्रों से होकर
हमारे मंदिरों-मस्जिदों की राह तय होती है
इन्हीं क़ब्रों से होकर
इंसानियत इल्म की छलांग लगाती है
इन्हीं क़ब्रों से होकर
अख़राजातों के वायस बनते हैं
इन्हीं क़ब्रों से होकर हम मुक़म्मल होते हैं।

या खुदाया!
तूने हमारी तक़रीरों में
क़ब्र क्यों लिख दी?
या फिर ऐसा कर
इन क़ब्रों को नज़रबन्द कर दे।

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नम्रता श्रीवास्तव
अध्यापिका, एक कहानी संग्रह-'ज़िन्दगी- वाटर कलर से हेयर कलर तक' तथा एक कविता संग्रह 'कविता!तुम, मैं और........... प्रकाशित।