‘साहित्य गोष्ठी’ चंडीगढ़ द्वारा आयोजित सेमिनार में पढ़ने के लिए लिखा गया आलेख

एक साहित्यकार के जीवन की मूल समस्या है साहित्यकार के रूप में अपने व्यक्तित्व को बनाए रखने की और शेष सब समस्याएँ इस एक समस्या के साथ ही जुड़ी हुई हैं।

इस प्रसंग में साहित्यकार की आर्थिक स्वतन्त्रता का प्रश्न सबसे पहले सामने आता है। यदि एक लेखक आर्थिक रूप से स्वतन्त्र होकर नहीं जी सकता तो लेखक के रूप में उसके व्यक्तित्व का विकास कुण्ठित होने लगता है। आजीविका के लिए लेखन के अतिरिक्त अन्य साधनों पर निर्भर करने वाले लेखक को जीवन में कई तरह के समझौते करने के लिए विवश होना पड़ता है और ये समझौते अनिवार्य रूप से उसके व्यक्तित्व को तोड़ते हैं। इस तरह आर्थिक समस्या एक लेखक के लिए चुनौती बन जाती है।

परन्तु आज वस्तुस्थिति क्या है? हमारे यहाँ किसी साहित्यकार से एक अनजान व्यक्ति यह प्रश्न पूछ ले कि वह क्या काम करता है तो वह प्रायः असमंजस में पड़ जाता है कि क्या उत्तर दे। काम तो वह होता है जिसे करके व्यक्ति अपना और अपने परिवार का निर्वाह करता हो। यदि वह इसके लिए एक पत्र का सम्पादन करता है तो वह सम्पादक है, कहीं पढ़ाता है तो प्रोफ़ेसर या अध्यापक है। यह नहीं तो वह अफ़सर, प्रोड्यूसर, क्लर्क या चपरासी कुछ-न-कुछ ज़रूर है। और भाषाओं की बात मैं नहीं जानता, परन्तु हिन्दी के अधिकांश लेखक लेखन के साथ नौकरियाँ करते हैं, कुछ ऐसे हैं जो अपना प्रकाशन आप करके काम चलाते हैं। जो ये दोनों काम नहीं करते, वे यह सोचकर चलते हैं कि साल में जैसे-कैसे उन्हें डेढ़-दो हज़ार पृष्ठ लिखने ही चाहिए जिससे खाने-पहनने की व्यवस्था ठीक चलती रहे। इस उद्देश्य से वे बहुत कुछ ऐसा लिखते हैं जो उनके साहित्यिक मान को बढ़ाने की बजाय कम करता है।

इस स्थिति का बहुत कुछ उत्तरदायित्व हमारे पाठक और प्रकाशक पर है। हमारे यहाँ साधारण पाठक को उधार की पुस्तकें पढ़ने की कुछ ऐसी आदत है कि अपने पैसे से पुस्तक ख़रीदने की बात उसके दिमाग़ में आती ही नहीं। मेरे यहाँ आने वाला कोई व्यक्ति यह नहीं कहता कि भाई तुम्हारा मेज़पोश अच्छा है, मैं ले जाऊँ? या तुम्हारा क़लमदान बहुत बढ़िया है, मैं दो-चार दिन इस्तेमाल कर लूँ? दरी, कुर्सी, मेज़, काग़ज़ या पेपर-वेट कोई नहीं माँगता, परन्तु कोई-न-कोई पुस्तक हर आदमी ज़रूर माँगता है : ‘अरे भाई, वह देखना तुम्हारे पास इल्या एहरेनबर्ग का उपन्यास होगा ‘थाँ’—दो-चार दिन में पढ़कर लौटा दूँगा।’ या ‘भाई, तुम पिछली बार घर पर नहीं थे, मैं तुम्हारी ‘शरद् ग्रन्थावली’ के दो भाग निकालकर ले गया था, किसी समय लेता आऊँगा।’ कुछ लोगों को कहते सुना है कि हिन्दी पुस्तकों के पाठक अभी हैं ही नहीं, जितनी पुस्तकें जाती हैं, पुस्तकालयों में ही जाती हैं। परन्तु यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी के पाठकों की संख्या आज कम नहीं है। हाँ, पढ़ने के लिए पुस्तक ख़रीदनी भी चाहिए, यह विश्वास रखने वालों की संख्या बहुत कम है। जो लोग पुस्तकें माँगकर ले जाते हैं, उनसे दूसरे माँग लेते हैं और वे आगे और किन्हीं को उधार दे देते हैं। इससे जिन्हें पुस्तक ख़रीदना अच्छा लगता है, वे भी धीरे-धीरे ख़रीदना छोड़ देते हैं। परिणाम यह है कि बड़े-बड़े प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएँ भी उन्हें केवल स्वान्तः सुख देकर ही रह जाती हैं।

पाठक के बाद प्रकाशक के उत्तरदायित्व की बात ली जाए। साहित्य को लोकप्रिय और सर्वसुलभ बनाने के लिए यह आवश्यक है कि प्रकाशन सम्बन्धी दीर्घकालीन योजनाएँ बनायी जाएँ और ऐसी व्यवस्था की जाए कि अच्छी पुस्तकें एक साधारण पाठक के सामने से एक बार गुज़र तो जाया करें। परन्तु इसके लिए जितनी बड़ी पूँजी चाहिए, वह शायद आज के हिन्दी प्रकाशक के पास है नहीं। वह अपने वार्षिक बजट के हानि-लाभ को दृष्टि में रखकर ही चलता है। फिर भी जब तक इस दिशा में प्रयत्न नहीं होता, परिस्थिति में सुधार की आशा नहीं की जा सकती। एक अच्छी पुस्तक का पाँच हज़ार का संस्करण एक वर्ष में बिक जाए, तभी कुछ अंश तक यह सम्भव होगा कि एक लेखक साहित्योपजीवी रहकर साधारणतया अच्छे स्तर का जीवन व्यतीत कर सके। यूँ लेखक और प्रकाशक का सम्बन्ध और तरह से भी बदनाम है। उसमें सचाई कितनी है, यह हमारे प्रकाशक बन्धु ही अच्छी तरह बता सकते हैं।

परन्तु यह सब होते हुए भी यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि पाठक और प्रकाशक, इन दोनों से बड़ा उत्तरदायित्व लेखक का अपना है। यदि परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं, तो भी एक लेखक के अन्दर लेखकीय जीवन स्वीकार करने का आग्रह क्यों न हो? मैं उन लोगों से सहमत नहीं जो यह कहा करते हैं कि भूख और अभाव सहकर ही एक लेखक सही अर्थ में लेखक बनता है। ऐसा कहना झूठ है, प्रवंचना है। भूख और अभाव लेखकीय जीवन की अनिवार्य शर्त नहीं है। ऐसा होता तो रवि बाबू और टाल्स्टाय महान लेखक न होते। परन्तु हाँ, भूख और अभाव के डर से एक लेखक समझौतेबाज़ी में पड़ जाए या अपने लेखन को बंधक रखकर बैठ जाए, यह बात समझ में नहीं आती। साहित्य रचना केवल फालतू समय में किया जाने वाला कर्म नहीं। अन्यान्य कलाओं की तरह इसके लिए भी व्यक्ति के पूरे समय और समूचे व्यक्तित्व का समर्पण आवश्यक है। केवल प्रतिभा ही एक लेखक का निर्माण नहीं करती। प्रतिभा एक बंद कमरे के लेन्स की तरह है। सही अर्थ में उसका उपयोग करने के लिए उसे जीवन के क्षेत्र में ले जाना आवश्यक है। इस तरह लेखक के लिए रचना ही साधना नहीं, जीवन भी साधना है। और इस साधना को स्वीकार करके ही वह अपने व्यक्तित्व की रक्षा कर सकता है। किसी भी तरह की निर्भरता, किसी भी तरह की समझौतेबाज़ी, इस मार्ग में बाधा बन जाती है। यही कारण है कि समझौतेबाज़ी में पड़ी हुई प्रतिभा प्रायः व्यक्ति के लिए बोझ बन जाती है। इसी कारण से वह इंटेलेक्चुअल वर्ग जन्म लेता है जो जीवन के सब मूल्यों में आस्था खोकर उनका उपहास उड़ाने लगता है और एक ऐसे लोगों का समूह उठ खड़ा होता है जिन्हें साहित्य और जीवन के मूल्यों से कोई वास्ता नहीं होता और जिनके लिए साहित्य केवल एक हथकंडा होता है—पद, अधिकार और पुरस्कार प्राप्त करने का हथकंडा। इसीलिए गुटबंदियाँ और धड़ेबाज़ियाँ जन्म लेती हैं। व्यक्तिगत स्तर के झगड़े सैद्धान्तिक आलोचना के रंग में पेश होते हैं। किसी को बनाने और किसी को उखाड़ने के लिए खेमेबाज़ी की जाती है। यह वातावरण भी साहित्यकार के लिए एक चुनौती है। उसके व्यक्तित्व के मूल्य का निर्णय इसी आधार पर होगा कि वह बहाव में बह जाता है या अपने क़दमों पर खड़ा रहता है।

लेखक की स्वतन्त्रता के प्रश्न का केवल आर्थिक पहलू ही नहीं है, और भी कई पहलू हैं। विचारों और मान्यताओं की दृष्टि से उसकी स्वतन्त्रता का प्रश्न शायद सबसे महत्त्वपूर्ण है। यह ठीक है कि आज की दुनिया में दो विचारधाराओं का स्पष्ट द्वन्द्व चल रहा है और लेखक तो क्या कोई भी व्यक्ति इस द्वन्द्व से अछूता नहीं रह सकता। जो प्रत्यक्ष रूप से उस द्वन्द्व से अलग रहने की बात करते हैं, परोक्ष रूप से वे भी उस द्वन्द्व से प्रभावित होकर ही चलते हैं। जो लोग यह कहते हैं कि लेखक का किसी एक विचारधारा के साथ सम्बन्ध रखना पूर्वग्रह है, उसे तो क्षण-प्रतिक्षण की अनुभूतियों को ज्यों-का-त्यों व्यक्त कर देना चाहिए, शायद लेखक को एक चेतन जीव न समझकर एक ऑटोमेटिक मशीन समझते हैं जिसका जो बटन दब जाए, वह उसी के अनुसार संख्या छाप देती है। लेखक की इस तरह की स्वतन्त्रता की बात तो हास्यास्पद लगती है। परन्तु मूल समस्या यह नहीं है। वास्तविक समस्या तो यह है कि क्या यह आवश्यक है कि लेखक अपने व्यावहारिक जीवन में विभिन्न विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक संस्थाओं में से किसी एक के साथ सम्बद्ध होकर चले? यदि वह ऐसा नहीं करता तो इसका क्या यह अर्थ नहीं कि जीवन-भर वह एक मध्यम मार्ग का राग अलापता रहना चाहता है या कि अपने लिए जीवन की हलचल से दूर एक भुलावे का निर्जन तट खोजना चाहता है? हम कह सकते हैं कि परिस्थिति को इस रूप में देखना भी एक पूर्वग्रह है। बात वास्तव में ऐसी नहीं है। जहाँ यह आवश्यक है कि लेखक का जीवन के सम्बन्ध में एक निश्चित दष्टिकोण हो और वह मानव जीवन के व्यापक संघर्ष से हट-बचकर चलता हुआ जीवन-भर अनुभूति की वीरान पगडंडियाँ ही न खोजता रहे, वहाँ यह भी अपेक्षित है कि वह जीवन की हर घटना और परिस्थिति का मूल्याँकन स्वतन्त्र रूप से करे और जो भी मूल्याँकन वह कर सके, उसे साहसपूर्वक दूसरों के सामने रख दे। पार्टी ह्विप से राजनीतिक स्ट्रेटेजी का निर्णय तो किया जा सकता है, परन्तु पार्टी ह्विप से साहित्य-रचना नहीं हो सकती क्योंकि साहित्य-रचना एक स्ट्रेटेजी नहीं है, एक मूल्याँकन है। मूल्याँकन ग़लत हो, यह और बात है। साहित्यकार में इतना साहस भी होना चाहिए कि वह यह स्वीकार कर सके कि उसका किया हुआ मूल्याँकन ठीक नहीं था। परन्तु राजनीतिक स्ट्रेटेजी तो हर छः महीने के बाद बदलती है। यदि साहित्य-रचना का सम्बन्ध अनिवार्य रूप से उसके साथ जोड़ दिया जाए तो आज की लिखी हुई कविताएँ, कहानियाँ और उपन्यास कल बेकार होंगे और कल की रचनाएँ परसों कूड़ा हो जाएँगी। और यह नहीं कि साहित्यिक आन्दोलन के इतिहास में ऐसा हुआ नहीं। इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं। यह स्थिति इसलिए पैदा होती है कि राजनीतिक जीवन में कार्य करने वाले व्यक्ति यह भुला देते हैं कि विचारधारा और स्ट्रेटेजी एक ही चीज़ के दो पहलू तो हैं, पर दोनों में एक बहुत बड़ा अन्तर भी है। राजनीति के क्षेत्र में कई बार स्ट्रेटेजी अधिक महत्त्वपूर्ण होती है, पर साहित्य के क्षेत्र में महत्त्व विचारधारा का ही है। इसलिए राजनीतिज्ञ यह ग़लत माँग करता है कि साहित्यकार उसकी हर स्ट्रेटेजी में उसका साथ दे। साहित्यकार अपने लिए यह स्वतन्त्रता चाहता है कि वह राजनीतिज्ञ की ग़लत स्ट्रेटेजी को ग़लत कह सके, उसकी भूल उसे बता सके, उससे असहमत हो सके। किसी भी राजनीतिक दल के अन्तर्गत अनुशासन का प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण होता है, इसके लिए यह आवश्यक है कि एक निश्चित विचारधारा रखते हुए भी साहित्यकार उस तरह के अनुशासन से मुक्त रहे। यही उसकी वास्तविक स्वतन्त्रता है, और यह स्वतन्त्रता ही उसकी रचना को शक्ति देती है।

इसके अतिरिक्त प्रश्न और भी हैं—साहित्यकार के राज्याश्रय स्वीकार करने या न करने का प्रश्न और साहित्यकारों के अपने सामूहिक संगठन का प्रश्न, इत्यादि। राज्याश्रय के प्रसंग में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि यदि राज्य द्वारा ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जा सकती हैं कि एक-एक लेखक राज्य द्वारा दी गयी सुविधाओं का उपभोग करता हुआ भी अपने व्यक्तित्व और विचारों की स्वतन्त्रता को बनाए रख सके और उस पर कोई ऐसा दायित्व न पड़ता हो जिससे लेखक के रूप में उसकी आवाज़ कमज़ोर होने लगे, तो उसे स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। परन्तु कई देशों के अनुभव इस बात को प्रमाणित करते हैं कि ऐसा हो नहीं पाता। उस स्थिति में यह कहना होगा कि लेखक का व्यक्तित्व निःसन्देह उन सब सुविधाओं की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है, जो राज्य उसे दे सकता है।

लेखकों के सामूहिक संगठन कुछ देशों में बहुत सफलतापूर्वक चल सके हैं, परन्तु हमारे यहाँ का उनका इतिहास बहुत आशाजनक नहीं रहा। संगठन बने, टूटे, फिर बने और फिर टूट गए। उसके पीछे भी कई कारण थे जिनमें विस्तार में जाने का यहाँ अवकाश नहीं। पिछले वर्ष प्रयाग में हुए लेखक सम्मेलन से यह आशा बंधी थी कि शायद लेखकों के परस्पर मिलने और विचारों का आदान-प्रदान करने का एक अच्छा मंच बन जाए। वह आशा कहाँ तक पूरी होती है, इसका पता आगे चलकर ही लगेगा। ऐसे मंच का न होना एक देश और एक भाषा के साहित्यिक जीवन में एक बहुत बड़े अभाव को सूचित करता है। परन्तु उसका पूरा उत्तरदायित्व लेखकों के अपने ऊपर ही है।

मोहन राकेश का लेख 'कहानी क्यों लिखता हूँ?'

साभार: किताब: साहित्य और संस्कृति | लेखक: मोहन राकेश | प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन

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मोहन राकेश
मोहन राकेश (८ जनवरी १९२५ - ३ जनवरी, १९७२) नई कहानी आन्दोलन के सशक्त हस्ताक्षर थे। पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम ए किया। जीविकोपार्जन के लिये अध्यापन। कुछ वर्षो तक 'सारिका' के संपादक। 'आषाढ़ का एक दिन', 'आधे अधूरे' और 'लहरों के राजहंस' के रचनाकार। 'संगीत नाटक अकादमी' से सम्मानित। ३ जनवरी १९७२ को नयी दिल्ली में आकस्मिक निधन।