स्त्री
सिर्फ़ नमक नहीं
कि मनमाफ़िक इस्तेमाल कर
बन्द कर डिब्बे में
सजा दी जाए
रसोई के किसी कोने में
खाने की किसी टेबल पर।
वह
लहराता समन्दर है
असीम सम्भावनाओं का
पनपते हैं जहाँ
अनमोल मोती।
जिसके
हृदय की अतल गहराईयों में
दफ़न हैं
सभ्यताओं के इतिहास का
सच्चा झूठ।
जहाँ
चेतना के सूर्य
सम्वेदना के चन्द्र से
उठते हैं ज्वार भाटे।
हिलोरें लेती लहरों से
अटखेलियाँ करते
तट पर
नंगे पैर चलते
तुमने ज़रूर महसूस की होगी
इसकी ठण्डक।
कैसे नकार सकते हो
तुम
इसके अस्तित्व को.
कैसे कुचल सकते हो
इसकी अस्मिता,
क्या तुम्हें अंदाज़ा नहीं
उठते तूफ़ानों का
जो अपने पर आ जाएँ
तो कभी मात नहीं खाते।